________________
जैन सम्प्रदाय के स्थानक वासी आम्नाय में दीक्षित होना [१६५ उत्साह बढ़ाने की दृष्टि से मुझे बधाइयाँ भी देने लगे रोज अन्य अन्य घर वाले मुझे भोजन के लिए बड़े भाव के साथ आमंत्रित करने लगे। जिस कुटुम्ब के यहाँ हम पहले पहल ठहरे थे उस कुटुम्ब की एक सुकन्या जो बहुत ही रूपवान, चतुर और स्नेहार्द्र भाव वाली थी वह तो मुझो अपने सगे भाई की तरह मानने और पूकारने लगी। एक अन्य परिवार था जिनके कोई संतान नहीं थी उस परिवार की मुखिया बहन मुझो अपना पुत्र जैसा समझकर वैसा ही वात्सल्य भाव दिखाने लगी। एक ऐसा भी परिवार था जो ठीक मालदार था परन्तु कोई संतान नहीं थी उसके दिल में यह भाव आने लगा कि अगर यह लड़का किसी ओसवाल का पुत्र हो तो हम अपने गोद रख लें क्योंकि मैं वास्तव में किस जाति का और किसका पुत्र है इसका किसी को भी सही पता नहीं लग रहा था। वह परिवार बारम्बार मुझे भोजन के लिए आमंत्रित करता रहता था परन्तु मेरा मन कुछ और ही चाहता था । मुझो ऐसी बातें सुनकर एक प्रकार से कभी कभी वह अंतविषाद हो जाता था जो मुझे अपनी माता के स्मरण के कारण उमड़ जाता था।
उक्त प्रकार से मेरा दीक्षित हो जाने का जब निर्णय हो गया तो महाजनों ने गांव के दो-चार ज्योतिषियों को बुलाकर मुहूर्त निकलवाया ज्योतिषियों ने आश्विन शुक्ला १३ का दिन निश्चित किया और तदनुसार दिगठान के जैन भाइयों ने दीक्षा महोत्सव की तैय्यारी कर आयोजन करना शुरू किया। गांव के भाइयों ने दीक्षा-महोत्सव खब ठाट से मनाया जाय उसके लिए चन्दा वगैरह करना भी शुरू किया और आसपास के गांवों में उस महोत्सव पर आने के लिए निमंत्रण पत्रिकाएँ भी भेजनी शुरू की। कोई दस, बारह दिन पहिले से इस महोत्सव का प्रारम्भ किया गया । रोज़ मुझे अच्छे अच्छे कपड़े पहनाकर घोड़े पर बैठाकर तासा, ढोल वगैरह बाजों के पास एक एक घर पर भोजन के लिए बुलाया जाता था। मेरे साथ पांच-दस लड़के लड़कियां भी भोजन के लिए आते और ठाट से भोजन कराया जाता । पान इलायची आदि खिलाए जाते । यह रस्म ठीक उसी तरह मनाई जा रही थी जिस तरह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org