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जैन सम्प्रदाय के स्थानक वासी आम्नाय में दीक्षित होना [१६१
मुझसे कहने लगे कि हम तो अभी अपने गांव जा रहे हैं परन्तु थोड़े दिनों बाद वापस हम यहां आवेंगे तब तक तुम यहीं आनन्द से रहो। उनकी यह बात मुझे ठीक ही लगी क्योंकि इतने दिनों के परिचय से मेरा मन स्वयं वहाँ ठहरने का और उन साधु महाराज से अधिक सम्पर्क साधने का हो रहा था। उस दिगठान गांव के भी कई भाई बहिन मेरे परिचित हो गए थे और उनका भी उन्हीं की तरह मुझ पर स्नेह भाव बढ़ रहा था । मैं धीरे धीरे साधु महाराज के पास अधिक रहने लगा और रात को भी उसी स्थानक के बगल में एक छोटा सा मकान था वहीं अपना निवास करता रहा। साथ में कुछ दो-चार और भी भाई-बहिन वहाँ आ जाते और ताश वगैरह खेलने का कार्यक्रम चला करता उन साधु महाराज के पास जो बाल दीक्षित साधु था वह उस समय दशवकालिक सूत्र का मूल पाठ याद किया करता था। मुझे भी कहा गया कि तुम भी इसके साथ बैठकर यह सूत्र पाठ याद किया करो परन्तु मैंने अनुभव किया कि उस बाल साधू का कोई भाषा विषयक ज्ञान नहीं था वह हिन्दी भी पढ़ा नहीं था । दीक्षा लेने के बाद ही उसने अक्षर-बोध प्राप्त किया और तदनंतर, जैसा कि स्थानक वासी जैन संप्रदाय में प्रचलित है प्रथम प्राकृत मूल सूत्रपाठ ही पढ़ाना शुरू कराया जाता है। मैंने इसके पहिले कुछ हिन्दी भाषा सीख ली थी और छोटी बड़ी कहानियाँ आदि की पुस्तकें भी पढ़ी थी और गुरु महाराज ने मुझे शब्द उच्चारण की ठीक प्रारम्भिक शिक्षा भी दे दी थी और जब मैं उक्त रूप में खाखी बाबा का चेला बन गया था तब सारस्वत व्याकरण, अमरकोष आदि के भी कुछ पाठ सीख लिए थे । इससे मेरा पढ़ना और बोलना कुछ ठीक था। मुझे तपस्वीजी महाराज ने कहा कि तुम दसवकालिक सूत्र के प्रथम दो तीन अध्ययन को कंठस्थ करो । मैंने वे अध्ययन दो दिन में ही कंठस्थ कर लिए जिनको वह बालक दीक्षित साधु कई दिन से सीख रहा था यह देखकर साधुजी महाराज को यह आभास हुआ कि मेरी पढ़ने की शक्ति भी कुछ ठीक तेज है । इत्यादि ।
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