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मंडप्या निवास जैन यतिवेश धारण
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लगा और सारा दिन उन आम के पेड़ों के नीचे बैठकर उनकी रखवाली करने लगा । साथ में मैं उस कल्प-सूत्र की पोथी को भी ले जाया करता था । जिसको बारम्बार पढ़ा करता था ।
वह पोथी कुछ पुरानी लिखी हुई थी । और शुद्ध राजस्थानी या गुजराती न होकर मिश्रित भाषा थी ऐसी पुरानी भाषा के ग्रन्थों को बालाव बोध कहते हैं । वह पोथी वैसी ही कल्प- सूत्र के बालाव बोध रूप थी । उसकी पुरानी लिपी और शब्दों को ठीक पढ़ लेने के लिए मैं वहाँ बैठा २ प्रयत्न करता रहता था जो शब्द मेरी समझ में नहीं आते थे उनको मैं ज्ञानचन्द जी से पूछता रहता था परन्तु उन शब्दों का ठीक परिचय तो उनको भी नहीं था । उनके पास कल्प- सूत्र की ऐसी दो तीन और भी पुरानी पोथीयां थी, जिनको भी धीरे २ पढ़ने का मैंने अभ्यास चालू रखा। पांच सात दफ़े उनको ठीक २ पढ़ लेने से मेरी समझ में उसका अर्थ और सम्बन्ध ठीक-ठीक आने लग गया था । कोई दो महिने तक उन आम की रखवाली का मेरा काम बराबर चालू रहा । मैं रोज सुबह जल्दी उठकर घर से वहां पहुँच जाता था । खाने के लिए रोटियां ज्ञानचन्द जी की पत्नि रोज शाम को बना रखती थी। जिन्हें लेकर मैं चला जाता था और सारा दिन उन्हीं आम के पेड़ों के नीचे बैठा रहता था । वैसाख जेठ की लू भी दिन में काफी चलती थी उससे बचने के लिए खाखरों के पत्तों की एक छोटी सी टपरी भी बना ली थी । बीच २ में उस बुडढ़ भील के बच्चे-बच्ची भी वहां आ जाया करते थे जिनको दो चार केरियां देकर मैं उनको खुश रखता था ।
कभी २ उस वृद्ध जन के परिवार के बच्चे भी वहां आ जाते थे । मैं अपनी रोटी में से एक दो रोटियां उन बच्चों को दे देता था । दिन भर खूब गरम लू चलती रहती थी उसके सबब से आम के पेड़ों से केरियां टूट २ कर नीचे गिरती रहती थी । उनमें से ५-१० केरियां उस वृद्ध जन और बच्चों को दे देता था। बाकी बची हुई को एक कपड़े में गठड़ी के रूप में बांधकर शाम को ज्ञानचन्द जी के घर पर ले आता
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