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जिन विजय जीवन-कथा ने अपने घर में भी पकाने की दृष्टि से रख ली थी, ज्यों २ पकती गई उनको परचुरण लोगों को बेच दी जाती रही। इनके बेचने का काम खुद मैं ही करता था। मैं एक टोकरी में केरियां भरकर सिर पर उठाकर गांव के ऐसे मोहल्लों में बेचने निकल जाता था जहां पर बच्चे तथा स्त्रियां पैसे दो पैसे की केरियां खरीदते रहते थे। इस प्रकार चार-छः घन्टे घूम फिर कर मैं उन केरियों को बेचता रहा और रोज के १०-२० पैसे कमाता रहा।
कोई १०-१५ दिन यह क्रम चला । केरियों की मौसम भी खतम हो गई । इधर आषाढ सुदी का पक्ष शुरू हो गया और वर्षा की मौसम भी आ गई । गांव के लोग अपने खेतों की बुवाई हंकाई आदि में लग गये । जैन लोगों के चातुर्मास बैठने के दिन नजदीक आ गये थे इसलिए शानचन्द जी यति अपने हमेशा के कार्यक्रम के मुताबिक कहीं चोमासे के २-३ महीने व्यतीत करने के लिए जन लोगों से पत्र व्यवहार करने शुरू किये । ५-१० दिन में ही उनको २-३ गांवों से बुलावे के पत्र मिले । उन्होंने मुझसे कहा कि अबकी बार पर्युषणा करने के लिए मुझे कहीं गुजरात के गांव में जाने की इच्छा है । अगर किसी अच्छे गांव में रहने का मौका मिल गया तो मैं तुझको भी अपने साथ ले जाना चाहता हूँ। इस विचार से उन्होंने अपनी जाने की तैयारी की । मैं भी उनकी इच्छानुसार उनके साथ जाने को तत्पर हो गया। ज्ञानचन्दजी किसी अच्छे मुहर्त का दिन निकालकर मंडप्या से रवाना होकर नीमच गये । मैं भी उनके साथ था। नीमच से रेल में बैठकर हम लोग रतलाम गये जहां पर ज्ञानचन्दजी के पिता अथवा गुरू रहा करते थे। २-३ दिन रतलाम में ठहरकर गुजरात की सरहद पर आये हुए बारिया नामक गांव के लिए प्रस्थान किया। उस गांव में पहले भी ज्ञानचन्दजी ने एक दो पर्युषण पर्व किये थे। उस गांव वालों को उन्होंने पत्र लिखा था परन्तु उनका कोई जवाब नहीं मिला था । ज्ञानचन्दजी ने सोचा कि अब पर्युषणा के दिन नजदीक आ रहे हैं इसलिए वहां चले जायं और स्थान खाली होगा तो रह जायेंगे । इस विचार से हम दोनों बारिया के
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