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जिनविजय जीवन-कथा
था। बिछाने के लिए एक छोटी सी पुरानी दरी थी। पहनने के लिए मामूली लट्ठ की दो धोती थी बदन पर पहनने का आधी बांह का मामूली कुर्ता था और ओढ़ने के लिए दो सादी मल मल की चदरें थी। बस यही मेरा उस समय वस्त्र का परिग्रह था। बारिया से जिस जैन गृहस्थ ने एक रुपय्या मुझे दिया था। वह मेरी अंटी में हमेशा सुरक्षित रहता था। सुबह जल्दी उठकर गांव के बाहर दूर शौच के लिए चला जाता था गांव के नजदीक एक छोटा सा नाला बहता था। जो उन दिनों में वर्षा के कारण पानी से भरा रहता था। मैं शौच से निवृत होकर उसी नाले में स्नान कर लेता था। शौच जाने की दृष्टि से मेरा जीवन भर एक ही बार निवृत होने का रहा है । नाले में स्नान करके मैं मन्दिर में आ जाता और फिर एक किनारे बैठकर "उत्सग्ग हरम" आदि जो जैन स्मरण मुझे याद थे उनका पाठ कर लेता था। फिर जो पांच, सात भाई बहिन मन्दिर में दर्शन करने आते थे उनको मांगलिक सूत्र सुना दिया करता था। बाकी दिन के भाग में हिन्दी की छोटी छोटी स्कूली किताबें पढ़ता रहता था और उनको देख देख कर कागज पर अच्छे अक्षरों में नकल करने की कोशिश करता रहता था। स्कूली किताबों में छापे के बड़े बड़े अक्षरों को देखकर उन्हीं के जैसे गोल और सुडोल अक्षर लिखने का मैं अभ्यास किया करता था।
इस प्रकार मेरी पढ़ने की कुछ रुचि देखकर उस महाजन को ख्याल हुआ कि ये चेलाजी कुछ ठीक पढ़े हुए मालूम देते हैं। तब उसने एक दिन मुझसे पूछा कि क्या तुम कल्प-सूत्र पढ़ना जानते हो । तब मैंने कहा कि थोड़ा बहुत पढ़ लेता हूँ। तब उसने छपी हुई कल्पसूत्र की एक पुस्तक मुझे लाकर दी । जो तीन थुई वाले सम्प्रदाय के प्रवर्तक राजेन्द्र सूरी द्वारा छपाई गई थी। उस गांव के ओसवाल शायद उसी सम्प्रदाय के मानने वाले थे। मैंने उस पुस्तक को बड़े चाव से पढ़ना शुरू किया। क्योंकि इसके पहले मैंने मण्डप्या में उक्त रूप से कल्प-सूत्र की हाथ की लिखी हुई दो तीन पोथियां पढ़ लेने का ठीक
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