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जिनविजय जीवन-कथा
काली-टोपी, बदन पर कुर्ता और सादी धोती पहने करता था, परन्तु बनियों के यहां गोचरी जाने के समय नंगा सिर होना आवश्यक था तथा शरीर पर भी एक हल्की सी मलमल की धोती चद्दर ओढ़ना जरूरी था। इसलिए वहां गंगापुर जाकर ज्ञानचंद जी ने मुझे वह चादर ओढ़ादी और मेरे सर पर से टोपी उतरवा दी। ज्ञानचन्द जी ने वहां के बनियों के सम्मुख मुझे स्व० देवीहंस जी महाराज के शिष्य के रूप में प्रसिद्ध कर दिया । बनिये भी वह मेरा नूतन यति भेष देखकर कुछ प्रसन्न ही हुए। कई दफे वे सुबह आकर मुझे मांगलिक पाठ भी सुनाने को कहते थे। मैंने दो तीन लकड़ी के पात्र एक झोली में रखकर बनियों के यहां से भिक्षा लाने का मुहूर्त किया। इसके पहले मैंने कभी कहीं भिक्षा नहीं मांगी थी। मैं एक खानदान राजपूत घराने का लड़का इस तरह यतियों के साथ रहकर बनियों के यहां भिक्षा मांगने के लिए जब चला तब न जाने मेरे मन में कैसे २ विचार उत्पन्न हुए। परन्तु मनुष्य परिस्थिति से लाचार होकर क्या-क्या नहीं करता रहता है । मैं भी उसी परिस्थिति के वश होकर जीवन में पहली दफे रोटी की भिक्षा लेने चला । परन्तु उस प्रथम गोचरी के लिए गंगापुर के ओसवालों में जो मुखिया थे और जो उस प्रतिष्ठा के कराने में भी अगुवा थे उन्हीं के घर जाना हुआ । वे महाजन मुझे अपने साथ ले गए। यति लोग किसी बनिये के यहां भिक्षा लेने जब आते हैं तब उस घर में प्रवेश करते समय "धर्मलाभ" ऐसा वाक्य उच्च स्वर से बोलते हैं जिससे घर की स्त्रियों को यह पता लग जाय की कोई यतिजी गोचरी लेने आये हैं। मैंने भी उस दिन अपने जीवन में पहली बार इस "धर्मलाभ" वाक्य का उच्चारण किया। मेरी छोटी सी चौदह पन्द्रह वर्ष की उम्र वाले लड़के को यति के चेले के रूप में अपने घर भिक्षा लेने निमित आये देखकर वे स्त्रियां कुछ क्षण तक तो मेरे सामने टकटकी लगाकर देखने लगी । पर इतने ही में सेठ जी अन्दर आ गये और बोले कि अपने मंदिर की प्रतिष्ठा कराने के लिए जो यति जी महाराज आये हैं उनके साथ ये एक बड़े गुरांसां के चेले हैं । छोटी उम्र के हैं परन्तु पढ़े लिखे
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