Book Title: Jinvijay Jivan Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Mahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada

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Page 167
________________ १४] जिनविजय जीवन-कथा में प्रसिद्ध हो गया था । मन्दिर में जब प्रतिष्ठा की तैयारी होने लगी तब बहुत से स्त्री-पुरुष, बाल-बच्चे मन्दिर में दर्शन के लिए आते रहते थे। शानचन्दजी हारमोनियम पर स्तवन वगैरह घंटे दो घंटे रोज गाया करते थे। इससे लोगों का आकर्षण बना रहता था। मैं भी मन्दिर में देवताओं की मूर्ति की पूजा आदि किये करता था और जो कोई दर्शनार्थी आते थे उनको मांगलिक भी सुनाता रहता था। अन्य यतियों की तरह मैंने भी सादा यति वेष धारण कर लिया था। प्रतिष्ठा की क्रिया विधि तथा योग्य रीति से निश्चित मुहूर्त में पूरी हुई। गांव के महाजनों ने उसके निमित जो कुछ भोजन समारम्भ आदि तय किये थे, वे सम्पन्न हुए। आसपास के हजार पांच सौ लोग भी वहाँ एकत्रित हुए। बाद में प्रतिष्ठा के कार्य में भाग लेने वाले यतियों को भी ज्ञानचन्द जी ने यथा योग्य दक्षिणा दिलाई। उनको खुद को कितने रुपये मिले इसका तो मुझे ठीक पता नहीं लगा, परन्तु चद्दर, शाल आदि कुछ विशेष रूप से उनको भेंट की गई। मुझे भी एक चद्दर, एक धोती मिली। और पांच रुपये नगद मिले । मेरे लिए ये नगद रूपये बड़ी अद्भुत वस्तु थी। क्योंकि इसके पहले जीवन में मुझे कभी किसी से नगद रुपया नही मिला था। इन पाँच रुपयों की प्राप्ति का स्मरण मेरे मनमें एक विशिष्ठ स्थान रख रहा है । सैकड़ों ही बार प्रसंग विशेषों पर मुझे इन पांच रुपयों का स्मरण होता रहा है । पर इन रुपयों को मंडप्या में जाकर मैंने ज्ञानचंद जी की पत्नी को दे दिये । जिससे वह बड़ी खुश हुई थी। प्रतिष्ठा का कार्य इस प्रकार समाप्त होने पर हम लोग मंडप्या चले गये । धनचन्द जी भी बानेण गये । मैं फिर मंडप्या में ज्ञानचन्दजी के पास जैन धर्म का कल्पसूत्र जो खास करके पयूषणों के दिनों में जैन लोग सुना करते हैं, उसको थोड़ा २ बांचने का अभ्यास करने लगा। राजस्थानी, गुजराती मिश्रित भाषा में लिखी हुई एक पुरानी पोथी ज्ञानचन्द जी के पास थी, उसी को मैं पढ़ता रहता था ताकि वह पाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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