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जिन विजय जीवन-कथा
के जागीरदार रावजी के यहां कोई विवाह का प्रसंग था, जिसमें शामिल होने के लिए रूपाहेली से मेरे पिता आये थे । वह समय शायद वर्षाकाल का प्रारम्भ था। उस समय बड़ी जोर की वर्षा हुई थी, जिसके कारण अठाणा गांव के पास बहने वाली नदी में पानी का बड़ा भारी पूर आ गया था। उस नदी के किनारे पर ही रावजी का कोई दरीबा सा मकान था जहां हमें डेरा दिया गया था । दरीबे में बैठकर नदी का पूर देखने में मुझे बड़ा आनन्द आया था । जिन्दगी में पहली ही दफे मैंने जोरों से बहने वाली नदी का प्रवाह देखा था इसलिए उसका स्मरण मेरे मन पर तादृश अंकित हो गया। उस समय की जोर की वर्षा से मैं उस दरीबा की पत्थर की फर्श पर फिसल पड़ा जिससे मेरे घुटने में बड़ी चोट आ गयी और मेरा घुटना सूज गया। फिर कई दिन तक उस पर पट्टा बांधे रखना पड़ा । इसका भी मुझे पूरा स्मरण बना रहा । खाखी का स्वांग धारण कर जब में अठाणा के पास से निकला तो उस घटना का भी मुझे स्मरण हो आया।
जावद के पास किसी देवस्थान के मैदान में हमारे काफिले का पड़ाव पड़ा और यथास्थान तम्बू डेरे आदि लगाये गये। जावद में खाखी महाराज को मानने वाले बहुत से महाजन, ब्राह्मण, राजपूत, धाकड़ आदि जाति के लोग थे; वे सब खाखी महाराज को नमस्कार आदि करने आये और रीति-रिवाज अनुसार निश्चित डेरा और खानपान आदि का प्रबन्ध करने लगे । सांझ होने पर देवता की आरती और पूजा का समारम्भ मनाया गया। गांव के पचासों स्त्री-पुरुष खाखी महाराज का दर्शन करने और पावां धोक देने के लिए आये-गये । गर्मियों के दिन थे इसलिए काफ़िला वाले सभी जन अपनी मन पसन्द की जगह में जाकर रात्री की विश्रांति ली । मैं भी पिछली रात्रि की तरह एक वृक्ष के नीचे अपना कम्बल डालकर सो गया। जावद में खाखी महाराज का मुकाम दो तीन दिन रहा । दूसरे दिन सवेरे खाखी महाराज ने मुझे अपने पास बुलाया और सुखानन्द जी से चलकर जावद आये उस विषय में पूछा कि बच्चा तेरी तबियत कैसी रही? कुछ
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