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श्री सुखानन्द जी का-प्रवास और भैरवी-दीक्षा [१२५ पर किसी अन्य मठ में जाकर ठहर गया। वहां बैठा २ खाखी महाराज की सारी परिस्थिति की जानकारी वह करने लगा। धीरे २ वहां पर वह कुछ ऐसे-ऐसे दो चार खाखी गुण्डों को भी लालच देकर अपने वश में करने की कोशिश करने लगा। इस बात का जब खाखी महाराज को पता लगा तो वे अधिक चिन्तित होने लगे। उन्हें भय होने लगा कि वह दुष्ट कभी रात बिरात यहां आकर दंगा फिसाद, मार-पीट आदि न कर बैठे । मुझे भी कामदार जी ने, जिनकी मेरे साथ अच्छी सहानुभूति थी। इन बातों का कुछ परिचय दिया।
मैं इन सब बातों को सुनकर मन में उद्धिग्न होने लगा, मैं उस समय ऐसी परिस्थितियों से सर्वथा अनभिज्ञ था, मुझे न किसी बात का लालच था और न किसी वस्तु पर मोह था। उस समय न मेरा कोई सहायक ही था और न कोई अभिभावक था । न कोई मेरी चिन्ता करने वाला था और न कोई मेरी सुध ही लेने वाला था। मैं अपने आपको सर्वथा एकाकी और असहाय अनुभव करता था। मेरी इच्छा केवल विद्या पढ़ने की थी। न मुझो खाने-पीने की और कपड़े लत्ते की ही चाट थी। मैं जिस चर्या और स्वांग में पिछले तीन चार महीनों से रह रहा था मुझे उसमें आनन्द आता था।
उस पंडित के चले जाने के बाद मेरा पढ़ना बन्द हो गया था तथा उन पिछले श्रावण-भादों के दो महीनों में उज्जन वाले उस मठ में रहते हुए उन बाबा जोगटों का जो जीवन व्यवहार देखने में आया उससे मेरा मन खिन्न होने लगा। दिन-रात में सोचने लगा कि किस विचार से मैं उस सेवकजी के कहने से इन खाखी बाबा की मूर्ख और अशिष्ठ जमात में शामिल हो गया। इसके साथ मेरे मन में पिछले वर्ष बानेण और कानोड़, भिंडर आदि स्थानों में जिन जैन यतियों का जो सम्पर्क हुआ उसकी याद भी मुझे आने लगी। मैं सोचने लगा कि इन मूर्ख खाखियों की अपेक्षा वे जती लोग काफी शिष्ट संस्कारी और कुछ पढ़े लिखे हुए थे । यद्यपि उनमें कुछ गंजेड़ी और भंगेड़ी भी थे परन्तु सामान्यतया वे अच्छे व्यवहार वाले और प्राचार वाले थे। मेरा मत बनने लगा कि
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