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जिनविजय जीवन-कथा
एक उत्सव मनाया गया, जिसमें आस-पास के अन्य स्थानों के साधु-संत बाबा-जोगी आदि भी सम्मिलित हुए। उस दिन भोजन न होकर उपवास रखा गया पर साथ में कुछ फलादि खाने को दिए गये ।
दूसरे दिन खाखी महाराज की तरफ से सौ डेढ़ सौ साधु संतों को दाल-बाटी का सादा भोजन कराया गया। उसी दिन से मालपुआ आदि का गरिष्ठ भोजन बनना बंद हो गया और केवल एक बार दाल-बाटी का सादा भोजन निश्चित हो गया । खाखी महाराज के लिए कुछ खास भोजन अलग से बनने लगा । हम सब छोटे बड़े बाबा लोग एक ही प्रकार का सामूहिक भोजन करने लगे। ... खाखी महाराज ने इसके पहले का वर्षाकाल मध्य प्रदेश के किसी स्थान में बिताया था। वहां से चलते हुए नर्मदा नदी के किनारे ओंकारेश्वर की यात्रा की । वहां से फिर माहेश्वर होते हुए मांडु, धार, वहां से फिर इन्दौर, रामपुरा, भानपुरा आदि स्थानों में घूमते हुए उक्त प्रकार से वे सूखानन्द जी पहुंचे थे। रूद्र भैरव जी की और कामदार जी की बातों से संकेत मिलता था कि इस यात्रा में खाखी महाराज को काफी रुपया, पैसा मिला था। शायद इतनी रकम पिछले कई वर्षों में उनको नहीं मिली थी। उस समय तक नोटों का व्यवहार नहीं था इसलिए वह सब धन-राशि चांदी और सोने के सिक्कों ही में उनके पास जमा थी । खाखी महाराज की चेष्टा से अनुभव होता था कि वे अपनी इस धन राशि को बड़ी सावधानी के साथ रखते थे। दिन-रात उनको इसकी पूरी देखभाल रखनी पड़ती थी। लकड़ी के बने हुए मजबूत दो तीन बक्सों में यह रकम रखी रहती थी जिन पर मजबूत ताले लगे थे। उनकी चाबियाँ खाखी महाराज खास अपने ही पास रखते थे। यों वे लंगोट पहने रहते थे जिससे चाबीयों को अपने कंदोरे में लटकाये रखने का कोई अवसर नहीं था, इसलिए वे चाबियों को अपने निजी के कमंडलु में रखते थे। वह कमंडलु सदा सोते, उठतेबैठते अपने पास ही रखते थे। यहां तक कि शौचघर जाते तो
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