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गुरु महाराज के स्वर्गवास के बाद
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जैन ओसवालों के समाज में कई गाँवों में मृतकजनों के स्मरणार्थ मोसर ( मृत्युभोज) नाम का जीमने जिमाने का व्यवहार शुरू हुआ । मेवाड़ के जैन यतियों में ऐसी प्रथा थी कि जहाँ कहीं भी ऐसा किसी अच्छे महाजन के यहाँ मोसर का अवसर सुनते, वे वहां चले जाते थे । ओसवाल महाजन इस प्रसंग पर आए हुए यतियों को विशेष रूप से पकवान देने के लिये आमंत्रित करते थे और उनके पात्र लड्डु, आदि से भर कर, साथ . में यथा योग्य रुपया दो रुपया भेंट कर उनका सम्मान किया करते ये । इस लालच से कई यतिजन उस प्रसंग पर एकत्रित हो जाते थे । किसी बड़े गाँव में ऐसे मोसर के ५, ७ अवसर एक साथ आ जाते थे, जिसके कारण उन यतियों को यथेष्ट भोजन सामग्री के उपरान्त कुछ नकद रुपया पैसा भी हाथ लग जाता था ।
यति धनचन्द जी भी इन मोसरों के अवसर का लाभ लेने की दृष्टि से बाण के अन्य गांवों को जाना चाहते थे । उन्होंने मुझसे भी अपने साथ चलने को कहा। मैं भी नये नये गांवों को देखने की इच्छा से बड़ी खुशी से उनके साथ चल पड़ा । ठीक स्मरण तो नहीं है, परन्तु पोष माघ और फाल्गुन में कुछ दिनों तक हम अनेक गाँवों में घूमे, फिरे इस प्रवास में १०, १५ यतियों का साथ हो गया था । बानेण से हम पहले मंडया नामक गांव में गये । वहाँ पर ज्ञानचंद जी नामक एक यति थे । जो अच्छे खूबसूरत नोजवान, बोलने चालने में चतुर और रहन सहन में भी कुछ संस्कार सम्पन्न थे । उन्हीं के साथ हम लोग कई गाँवों में घूमे । हमने सुना कि भींडर में पांच दस मोसर बड़े महाजनों के हैं । अतः हम भींडर गये, वहाँ के एक स्थानिक यतिजी के उपाश्रय में हमने डेरा डाला । वहाँ अन्यान्य स्थानों के भी दस पन्द्रह यतिजन एकत्र हो गये थे । भी डर में कुछ दिन रहने के बाद सुना कि कानोड़ गांव में अगले महिने में ५, ७ बड़े मोसर होने वाले हैं । अतः भींडर से हम कानोड़ गये । भींडर में रहते हुए कुछ यतिजनों को खुजली का रोग होगया था । मुझे और धनचन्द जी को भी खुजली के रोग का चेप लग गया था और सारे शरीर में वह फैल गई थी ।
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