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जिनविजय जीवन-कपा
पद कृष्णा द्वादशी के दिन, जिस दिन जैन धर्म के पर्युषण पर्व का प्रारंभ होता है उस दिन प्रातः काल चार बजे के समय गुरु महाराज का देहोत्सगं हो गया । मृत्यु के समय पर्यन्त वे बिल्कुल सावधान अवस्था में थे और हरदम अपने मन में नमो अरिहंताणम् का जाप किया करते थे। उस रात को धनचन्द जी को भी यह आभास हो गया था कि आज की रात को गुरु महाराज का प्राणोत्सर्ग हो जायगा अतः वे सारी रात गुरु महाराज के पास बैठे रहे। में भी निश्चल भाव से उसी तरह उनके पास बैठा रहा । मृत्यु के पहले कोई १०, १५ मिनिट पूर्व मुझे अपने पास उन्होंने बुलाया और मेरे मस्तक पर अपना क्षीण हाथ रखकर बोले-"बेटा, रिणमल, तू विद्या पढ़ने का प्रयत्न करना, तू बहुत बड़ा विद्वान बनेगा और तू अच्छा भाग्यशाली मनुष्य होगा। अब हम इस दुनिया से विदा हो रहे हैं ।" बस इतने ही शब्द उन्होंने मुझे कहे । धनचन्द यति को उन्होंने कुछ नहीं कहा-केवल यही बोले-"रिणमल की अच्छी तरह सार संभाल रखना।" ऐसा कहकर वे मौन हो गये और उन्होंने आंखें मूंद लीं। ५, ७ मिनट के बाद ही उनका अन्तिम श्वास खत्म हो गया।
उस समय प्रातः काल हो रहा था और आकाश में घने बादल छाये हुए थे । सवेरा होते ही ग्राम जनों को गुरु महाराज के स्वर्गवास हो जाने की खबर मिल गई और उनका अन्तिम संस्कार करने के लिये महाजन तैयारी करने लगे। जैसा कि रिवाज है यति साधु आदि के मृत शरीर की एक डोलीनुमा प्रर्थी बनाई जाती है, वैसी अर्थी बनाई गई
और उसमें गुरु महाराज के शरीर को पद्मासन के आकार में जमा कर बिठा दिया। कोई. ११, १२ बजे के समय श्मशान यात्रा निकली और जिस तरह मैं अपने पिता की अन्त्येष्टि के समय मिट्टी की हैडिया में घर से आग लेकर अर्थी के आगे आगे चल कर श्मशान भूमि में पहुंचा था, उसी तरह गुरु महाराज की श्मशान यात्रा के आगे वैसे ही मिट्टी की इंडिया में अग्नि देव को लेकर आगे आगे चला।
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