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गुरु महाराज के स्वर्गवास के बाद
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श्राद्ध कर्म की रस्म अदा की। प्रागन्तुक यति जनों को पानी पीने का धातु का गिलास तथा सफेद मलमल की चद्दर भेंट स्वरूप दी गई । कुछ नकद रुपये भी भेंट किये गये। मेरे लिये यह सब बड़ा कुतुहल जनक प्रसंग था।
मैंने देखा कि उन यति गणो में कई बड़े वाचाल थे, कई बहुत हास्य प्रिय थे। कई बड़ी बड़ी गप्पें हांकने वाले थे। कई भंगेडी यानी भांग पीने के शौकीन थे। कई पान चबाने के प्रेमी थे। इनमें कुछ जवान से थे, कुछ प्रौढ़ थे और कुछ वृद्ध थे । उस छोटे से धनचन्दजी के मकान में उन यति जनों का समावेश होना संभव नहीं था। इसलिये पास के जैन मन्दिर में कुछ यति जनों को उतारा गया। उस मन्दिर के सामने एक ओसवाल भाई का अच्छा बड़ा मकान था, जिसको नोहरा कहते हैं, उसमें भी कुछ यतियों को उतारा गया । भोजन प्रबन्ध भी उस नोहरे में किया गया । यतियों के भोजन के साथ गांव के खास खास महाजन, ब्राह्मण और कुछ किसान आदि लोगों को भी भोजन दिया गया। कोई दो या तीन दिन रहकर वे यतिजन विदा हुए।
। उन यतिजनों में दो चार ऐसे भी थे जो बोलने में कुछ चतुर और बातचीत में बारम्बार संस्कृत के श्लोक और भाषा के दोहे,सवैया, छप्पय आदि पद्य भी बोलते रहते थे। जिनको मैं बहुत ध्यान से सुनता रहता था। उनमें से कुछ यति जनों को मेरे विषय में भी जिज्ञासा उत्पन्न हुई और वे यति धनचन्द जी से पूछताछ करते रहे । धनचन्द जी ने उनको मेरे बारे में क्या बताया, वह तो मुझे ठीक ज्ञात नहीं है । परन्तु उन्होंने यह बात कही थी कि मैं एक ब्राह्मण का लड़का है और मेरा नाम किशनलाल है । मैं स्वर्गस्थ यतिवर श्री देवी हंसजी के पास बरस दो बरस से रह रहा हूँ और उन्हीं के शिष्य के रूप में उनके साथ बानेण माया हूँ।
फिर उनमें से कुछ यति जनों ने मुझसे कहा कि तुम अच्छे बुद्धिमान लड़के दिखाई देते हो, सो तुम किसी अच्छे विद्वान और मालदार यति के
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