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जिनविजय जीवन-कथा
इसलिये तुम्हारी मां तुम्हें बुला रही है और मुझे लेने के लिये भेजा
उन दिनों में मेरा परिचय बानेण में रहने वाले एक सेवक जाति के ब्राह्मण से हुआ था, जो कुछ अच्छा संस्कारी कुछ पढ़ा हुआ और कुछ तांत्रिक क्रिया का जानने वाला था । वह अक्सर धनचन्द जी यति के यहां आया करता था और प्रायः उसकी बैठक भी ज्यादातर वहीं रहती थी। मेरी कुछ बौद्धिक चपलता देखकर मुझ पर उसका सद्भाव बढ़ने लगा। विजयादशमी के पर्व के दिनों में वह उदयपुर जाया करता था । इसलिये उसने मुझसे भी कहा-'दशहरे का त्यौहार देखने के लिये तुम भी मेरे साथ उदयपुर चलो। चार पांच दिन रहकर वापिस बानेण चले आएंगे !' ___इससे मेरा मन उन दिनों उदयपुर जाने के लिये उत्सुक हो रहा था मैंने तब तक कोई बड़ा शहर देखा नहीं था अतः उदयपुर जाने की और देखने की मेरी तीव्र उत्कंठा होने से मैंने उस रूपाहेली वाले महाजन से कहा--"मैं अभी उदयपुर जाना चाहता हूँ। वहाँ से वापिस आने के बाद दिवाली पर रूपाहेली आऊँगा।"
मेरी यह बात सुनकर वह महाजन रूपाहेली के लिये रवाना हो गया। मैं उसके एक दो दिन बाद उन सेवक जी के साथ उदयपुर जाने को तैयार हा । मेरे पास कोई खास कपड़े आदि नहीं थे। रूपाहेली से आते समय मेरी मां ने जो कुछ पहनने के लिये कुर्ते आदि दिये थे वे ही मेरे पास थे। उनमें से कुछ तो फट भी गये थे। मेरे गुरु श्री देवी हंस जी महाराज के पास कितना रुपया पैसा था और अन्य कितनी चीजें आदि थीं, उसका मुझे कोई पता नहीं था। यति धनचन्द ने बानेण आने पर वह सब माल सामान अपने कब्जे में कर लिया था और उसी के सहारे उसने स्वर्गस्थ यति जी महाराज की उत्तर-क्रिया आदि सब काम किये थे।
उदयपुर जाने के लिये कुछ पाँच दस रुपये के खर्च होने की बात
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