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मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें
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दूसरे दिन वहां प्रातः ६-१० बजे गाँव के ४०-५० बच्चों को इकट्ठा करवाया और मैंने उनको कुछ मीठाई आदि बांटी।
सायंकाल ठाकुर साहब के साथ और और बातें होती रहीं, उन्होंने इच्छा प्रदर्शित की कि हम आपके पास हमारे ठिकाने के बच्चों को पढ़ने के लिये भेजना चाहते हैं, यहां पर पढ़ाई का कोई प्रबन्ध नहीं है । आपके अनुग्रह से इन बच्चों का जीवन सुधर जायगा, इत्यादि । ठाकुर साहब को प्रसंगोंचित बातों में यह जानकारी हो गई थी कि पूना में मैं ऐसी शिक्षा संस्था का आयोजन कर रहा हूँ, जिसमें छोटे २ बच्चों की अच्छी शिक्षा का प्रबन्ध किया जा सके, मैं उन दिनों अपना आधा समय अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ में दे रहा था और आधा समय पूना के जैन विद्यालय में व्यतीत करता था, जिसकी स्थापना मैंने अहमदाबाद आने से पहले ही कर दी थी।
मैंने ठाकुर साहब से कहा कि इस विषय में तो मैं आपको अहमदाबाद जाकर सूचित करूंगा. परन्तु मेरी एक छोटी सी भावना है कि आप यहाँ रूपाहेली में कोई छोटा सा एक ऐसा स्थान बना दें, जहाँ बैठकर ये जो बच्चे अभी चारभुजा जी के मंदिर में खुले दरवाजे में बैठ कर पुजारी द्वारा कुछ पट्टी पहाड़े आदि पढ़ते रहते हैं, उनको बैठने की ठीक जगह मिल जाय। बातचीत चलते समय ठाकुर साहब ने वैसा कोई मकान बनाने वाली बात की तरफ अपनी सहानुभूति बतलाई, तब मैंने उनसे पूछा कि ऐसा छोटा सा कच्चा मकान बनवाने में कितनाक खर्चा लगता होगा? तो उन्होंने कहा कि कोई ३००/-४०० / रुपये में ऐसा ठीक मकान बन सकता है-तब मैंने उनसे निवेदन किया कि आप कोई अच्छी सी जगह देखकर वैसा मकान बनवा देने का कष्ट उठावें तो मैं उसके लिये ५००/ रुपये आपके पास भेज दूंगा, सुनकर ठाकुर साहब बहुत प्रसन्न हुये, मैंने कहा कि मैं अहमदाबाद जाकर आपसे इस विषय में पत्रव्यवहारादि करूँगा, आप मेरे लिये वैसी उपयुक्त भूमि का टुकड़ा प्रदान कर दें, मैं अपनी माता के नाम वह शिशु शाला बनवाना चाहूंगा।
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