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गुरू के सर्व प्रथम दर्शन
[५५ घटी थीं । इस कारण से गुरु महाराज के मन में मेरे माता पिता पर एक प्रकार से आदर भाव उत्पन्न हो गया।
मेरी अवस्था उस समय नो दस वर्ष की थी। तब तक मैंने कोई अक्षर ज्ञान प्राप्त नहीं किया था। ठीक स्मरण नहीं है कि उसके पहले के दो चार बरस मेरा अधिक रहना कहाँ हुआ था। शायद कुछ समय तक पिताजी के साथ जंगलात विभाग के कुछ स्थानों में बीता हो, क्योंकि मुझे सिरोही के पूर्व तरफ की आबू के नीचे वाली पहाड़ियों का अस्पष्ट स्मरण होता रहा है । मां ने सारनेश्वर महादेव के तीर्थ स्थान की कुछ बातें कहीं थीं। जो चौहानों के इष्टदेव समझे जाते हैं । सिरोही के उस पहाड़ी प्रदेश की किसी एक ढाणी में मेरी ननिहाल की छोटी सी जागीर थी। पर मैं अपनी माता के साथ एकाध बार अवश्य कभी वहाँ गया था, ऐसा मुझे अस्पष्ट आभास जरूर होता रहा है। मेरे नाना काफी वृद्ध उमर के होंगे उनकी सफेद दाढ़ी का चित्र मेरे मन पर सदा अंकित रहा है। इसी तरह उस जागीर का छोटा सा गांव, मेरे नाना के दो पक्के घरों का आभास भी मेरे मन पर जमा हुआ था।
एक दफे अपने पिता के साथ उनकी घोड़ी पर बैठ कर आबू के अचलेश्वर महादेव की यात्रा के लिये गया था, उसका मुझे बहुत स्पष्ट स्मरण है । क्योंकि घोड़ी पर बैठने के समय में अपनी चपलता के कारण उस पर से नीचे गिर गया और मेरी ठुड्डी पर एक पत्थर की चोट लग गई, जिससे खून बहा और उसको रोकने के लिये कपड़े का टुकड़ा जलाकर घाव में भरा था । बहुत दिनों तक रूपाहेली में उसका स्मरण बार बार मेरी माँ मुझे कराती रहती थी। उस समय मेरी अवस्था प्रायः आठ वर्ष जितनी होगी, उसके बाद ही पिताजी बीमार होकर रूपाहेली चले आये । यह प्रसंग विक्रम संवत १९५४ के आस पास का
कुछ समय बाद पिताजी का रोग फिर से बढ़ने लगा तब एक दिन गुरू महाराज दवाई के अनुपान के रूप में मीठे नींबू का रस यानी
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