________________
गुरु के सर्व प्रथम दर्शन
[६५
अपनी छाती से इस पूत्र को लगा सको, उतना लगालो। इस रात के बाद फिर न कभी अपने बेटे का मुह देख पाएगी और न ही बेटा तेरा मुंह देख पाएगा । इस तरह वह रात व्यतीत हुई। उस रात के मेरी मां के स्नेह परिप्लुत आलिंगन और चुम्बन आदि का स्मरण मेरे मानस पट पर आजीवन अमिट रूप से अंकित है। इसका स्मरण मुझे कई विशेष प्रसंगों पर जब जब हुआ, तब तब मेरे हृदय में एक प्रकार की बहुत ही तीव्र वेदना होती रही है और उस समय मैं जी खोलकर खूब रोता रहा हूँ।
सवेरा हुआ। हम लोग उठे । दातुन कुल्ला किया मां ने बड़े. प्यार से अपने पास बिठा कर मुझो कलेवा कराया और अपने हाथ से मेरे मुह में कुछ पास रखे । घंटा डेढ़ घंटा दिन चढे बाद मैं उपाश्रय में गया। वहाँ जो थोड़ा बहुत गरु महाराज का सामान था उसको बांधने करने की तैयारी में लगा । मुझो अच्छी तरह स्मरण है कि गुरु महाराज के पास कोई विशेष परिग्रह नहीं था। दो तीन लकड़ी के मझले कद के बक्से थे । जिनमें से एक में उनकी दवाइयों की शीशियाँ थीं। एक बक्से में उनके ओढ़ने पहनने के चद्दर आदि वस्त्र थे और तीन चार अच्छे ऊनी दुशाले थे । एक छोटी सी लकड़ी की मजबूत पेटी थी, जिसमें रुपये पैसे रहते थे। यह तो ज्ञात नहीं उसमें कितने रुपये थे, पर उसपर एक ताला लगा था, जिसकी चाबी गुरू महाराज अपने पास रखते थे। जब कभी उन्हें रुपयों पैसों की जरूरत होती तो उस बक्से को अपने पास मंगवा कर चाबी मुझो देकर खुलवाते थे। उस बक्से में कपड़े की पांच सात थैलियाँ थीं, जिनमें से किसी में तांबे के पैसे और किसी में चांदी के रुपये थे। तांबे के जो पैसे थे उनमें कुछ तो अंग्रेजी चलन के और कुछ देशी चलन के थे। इसी तरह जो चांदी के रुपये थे उनमें कुछ तो अंग्रेजी चलन के कलदार रुपये और कुछ देशी चलन के चांदी के सिक्के थे। जरूरत के मुताबिक उसमें से रुपये निकलवाकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org