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जिनविजय जीवन-कथा
आखिरी पावांधोक करके अपने मकान पर चली गई। मैं भी उसके साथ घर पर चला आया। उस रात मैं उसीके पास सोया। रात में बार बार वह मेरे मुह पर, मेरे शरीर पर बड़े प्यार से हाथ फेरा करती थी और मुझे छाती से लगाकर खूब रोती रहती थी।
यद्यपि में माता की छाती से लिपटा हुआ अर्द्ध निद्रावस्था में सोया हआ था, परन्तु बीच-बीच में मां की सिसकती आवाज से मैं चौंक उठता था और उसके गालों से बहने वाले आंसुओं को मैं अपने हाथ से पौंछता था, वह सारी रात इसी तरह व्यतीत होगई ।
ज्येष्ठ का महिना था। काफ़ी गरम रात थी। बहुत रात तक चन्द्रमा का प्रकाश फैल रहा था। हम दोनों माँ बेटे घर के बाहर वाले नीम के नीचे सोये हुए थे। उस रात का मुझे स्पष्ट स्मरण है। रात को कई दफे माँ पलंग पर बैठी हो जाती थी, मेरा मस्तक अपनी गोद में ले लेती थी और मुझे बारंबार मीठे चुम्बनों से बहलाती रहती थी फिर वह सो जाती, फिर उसकी आँखों में से आँसू के बूद टपकने लगते थे और मुझे अपनी छाती से लगाकर मेरे शरीर पर स्नेह भरे कोमल हाथ फेरा करती थी। मां कुछ भी नहीं बोल रही थी, मैं भी चुप था । मेरा हृदय भी उसी तरह भरा हुआ था और मेरी आँखों से भी उसी तरह बारंबार अश्रुबिन्दु टपकते रहते थे। जो मेरी मां की छाती पौर स्तन को गीले कर देते थे।
मां इस तरह क्यों बेचैन हो रही है, उस समय मुझे इसकी कोई कल्पना नहीं थी। मैं तो माँ के इस प्रकार के वात्सल्यपूर्ण स्नेह के कारण कोई अलौकिक सुख और आनन्द का अनुभव कर रहा था। ऐसा आनन्द अनुभव मुझो अपने जीवन में फिर कभी प्राप्त नहीं हुआ।
परन्तु माँ को जिस अव्यक्त बेचैनी का जो तीव्र अनुभव हो रहा था उसका कारण शायद उसकी अन्तरात्मा में विधाता का वह भावी अव्यक्त सन्देश अंकित हो रहा था कि आज की इस रात के बाद जीवन में फिर कभी तेरे पुत्रका मिलना नहीं होगा । इसलिये जितना भी
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