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जिनविजय जीवन-कथा
उनका कुछ विशेष भक्ति भाव था। उन यति ने गुरु महाराज से प्रार्थना की- "मैं आपको अपने स्थान पर ले जाना चाहता हूँ और वहाँ पर मैं आपकी सेवा सुश्रुषा करना चाहता हूँ।" गुरु महाराज को यह विशेष ज्ञान नहीं था कि उसका गांव बानेण किस जगह पर है क्योंकि वे कभी उस स्थान पर गये नहीं थे । यति धनचन्द ने कहा कि मेरा स्थान चित्तौड़गढ़ के पास ही है। यह सुनकर गुरु महाराज के मन में आया कि थोड़े दिनों बाद इस शरीर का अन्त होने ही वाला है। इसलिये चित्तौड़गढ़ जैसे तीर्थ स्थान के निकट इस शरीर का विलय हो तो उत्तम होगा।
गुरु महाराज जैन धर्म के शत्रुजय, गिरनार, आबू, तारंगा, ऋषभदेव आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों की अपने जीवन में कई बार यात्रा कर चुके थे। इसलिये ऐसे तीर्थ स्थानों पर यदि जीवन का अन्त हो तो वह महान पुण्य प्राप्ति का साधन होता है । चित्तौड़ भी जैन धर्म का एक वैसा ही महान तीर्थ भूत स्थान है । इस तीर्थ में पूर्वकाल में भी अनेक बड़े बड़े जैनाचार्य हो गये हैं। जिनवल्लभ सूरि जैसे महान जैनाचार्यों का देहोत्सर्ग इस पुण्य भूमि में हुआ है । इसलिये जैन यतियों के लिये यह एक विशिष्ट तीर्थ स्थान है । यहाँ पर जीवन का अन्त हो तो वह बहुत उत्तम होगा। ऐसा सोचकर गुरू महाराज ने धनचंद यति को उनके स्थान पर ले जाने की सम्मति दी।
तदनुसार दो तीन दिन में ही वहां जाने की तैयारी हो गई। रूपाहेली वासियों को जब यह बात ज्ञात हुई तो उनके मन में बड़ा दुख होने लगा। ठाकुरसा. वगैरह ने आकर उनसे बहुत कुछ प्रार्थना की कि आप इस अवस्था में रूपाहेली को छोड़कर अन्यत्र न पधारें। हम सब बहुत श्रद्धापूर्वक आपकी सेवा सुश्रूषा करने को तत्पर हैं । परन्तु गुरु महाराज ने कहा - "मेरी इच्छा अब किसी तीर्थस्थान पर जाकर इस शरीर को छोड़ देने की हो रही है । इसलिये मैं चित्तौड़ के आसपास की . पुण्यभूमि में शरीर त्याग करना चाहता हूँ" । गुरु महाराज का ऐसा निश्चयात्मक भाव जानकर रूपाहेली निवासी जन बहुत खिन्न हुए।
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