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गुरू के सर्व प्रथम दर्शन
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गहरी चोट आई और हड्डी टूट गई । यद्यपि ठाकुर सा. चतुरसिंहजी ने मुझे एक दफे कहा था कि यतिजी की अवस्था उस समय १०८ वर्ष थी, परन्तु मेरी कल्पना से उनकी आयु ६५ या १०० वर्ष के बीच अवश्य होगी। क्योंकि वे जब बीमार पड़े तब उनके पास उनके परिचित यतिजन बाहर से आते जाते रहते थे और उनसे जब कोई बातचीत होती थी तब वे बोला करते थे कि मेरा आयुष्य अब प्रायः सौ वर्ष जितना होने जा रहा है । इन शब्दों का वे बार बार व्यवहार किया करते थे। जिसकी ध्वनि मेरे कानों में आज तक भी गूंज रही है ।
तख्त पर से गिर जाने से उनकी जो पुट्ठे की हड्डी टूट गई थी, उसका ठीक होना असम्भव था । यद्यपि वे स्वयं बहुत अच्छे वैद्य थे और ऐसे रोगों को मिटाने के लिये लेप आदि के उपचार भी वे अनेक जानते थे, तथापि उनको निश्चय हो चुका था कि मेरा इस हड्डी का टूटना जीवन का अन्त ही सूचित करता है । इसलिये वे इस रोग के मिटाने के लिये कोई खास उपचार करने कराने का प्रयत्न नहीं करते थे । भेड़ के दूध जैसे मालिश के कुछ उपचार वे करते रहते थे। जिस दिन से वे तख्त से गिरे, उस दिन के बाद वे कभी उठ कर खड़े न हो सके । रूपाली के ठाकुर तथा अन्य महाजन उनके शरीर का सुख प्रश्न पूछने नियमित सदैव आया जाया करते थे । वे जो थोड़े बहुत अन्न और दूध का सेवन करते थे वह प्रायः मेरे घर से मेरी माँ तैयार करके भेज दिया करती थी । ठाकुर साहब अपने गढ़ से हलवा वगैरह बनवाकर भेजा करते थे, पर गुरु महाराज उसका उपयोग कदाचित ही करते थे ।
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एक दिन चित्तौड़ उदयपुर के राजमार्ग पर बसे बानेण ग्राम के निवासी धनचंद यति उनके शारीरिक सौख्य की प्रच्छा करने के लिये आये । वह यति कुछ वर्षों पहले गुरु महाराज के पास रूपाहेली में कुछ समय वैद्यक सीखने के लिये रहे थे । इसलिये गुरु महाराज पर
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