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गुरू के सर्व प्रथम दर्शन
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शायद कोई दो चार महिने बाद फिर हम लोग अपने घर रूपाहेली वापस आये । तब अपने निजी परिवार का एक कुटुम्ब भी माताजी साथ लेते आये । रूपाहेली में मेरे पिता के काका के बेटे इन्द्र सिंह जी (इंद्राजी) भी रहते थे। उनकी एक पुत्री थी जिसका नाम प्रताप कुंवर था। मेरा एक छोटा सगा भाई था, जो पिताजी की मृत्यु के समय प्रायः पाँच छह वर्ष का था। उसका नाम बादल था । मैं माता के साथ जब अपने ननिहाल वालों के यहाँ गया तब मेरे उस छोटे भाई को मेरे काका इन्द्राजी ने अपने पास रख लिया था । इन्द्राजी के कोई पुत्र नहीं था । इसलिये वे मेरे छोटे भाई पर बहुत प्रेम रखते थे। उसे अपना ही पुत्र मान कर उसका लालन पालन किया करते थे । मेरी उम्र उससे ५, ६ वर्ष वड़ी थी और मैं कुछ अधिक चपल था। इसलिये माता मुझे हमेशा ही अपने पास रखती थी।
मेरी माता रंग रूप में बहुत सुन्दर थी। मुखाकृति उसकी बड़ी रम्य थी। उसके सिर के बाल इतने लम्बे थे कि जब वे खुले होते तो कमर से भी नीचे तक के भाग को स्पर्श करते थे। मुझे याद है कि जब . वह अपने बाल खोलकर बैठती तो मैं उसकी पीठ के पीछे छिप कर उन बालों से अपने शरीर को ढक लेता था। कंठ उसका बहुत मधुर था। वह प्रातः काल उठकर बहुत से भजन गाया करती थी। जिनको मैं उसकी गोद में लेटा हुआ सुना करता था। उसको बहुत सी पुरानी कथा कहानियाँ याद थीं। जो समय समय पर वह अपने पास आने-जाने वाली स्त्रियों को सुनाया करती थी। .. अपने ननिहाल से वापिस आने के बाद मैं फिर गुरू महाराज के पास आने जाने लगा और वे मुझे धीरे धीरे जैन धर्म के कुछ स्तुति स्तोत्र आदि कंठस्थ कराते रहते थे, साथ में चाणक्य नीति आदि के संस्कृत श्लोक भी सिखाते थे।
प्रायः यह समय विक्रम सम्वत् १६५६ का था। उस साल राज
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