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जिनविजय जीवन कथा
स्थान में भयंकर अकाल पड़ा था। जिसके कारण हजारों मनुष्य भूख के मारे मर गये थे । रूपाहेली में भी ऐसे बाहर से आने वाले कई जन भूख से तड़फड़ा कर मरते देखे गये । गुरू महाराज बहुत दयालु थे । प्रतः ऐसे भूख से पीड़ित जनों को रोज कुछ रोटियाँ खिलाते रहते थे । गुरू महाराज के पास कोई रोटियाँ बनाने वाली स्त्री नहीं थी । जिससे वे मुझे रोज़ दो तीन सेर अनाज देकर मेरी मां के पास भिजवा देते थे । माँ उस अनाज को पिसवा कर स्वयं उसकी रोटियाँ बनाकर मुझे दे देती । जिनको लेकर मैं गुरू महाराज के पास चला जाता था । दोपहर के समय रोज पांच दस भूख से पीड़ित जन उनके उपाश्रय के आगे आकर बैठ जाते थे और मेरे द्वारा उन गरीबों को यथा योग्य रोटियाँ दिलाया करते थे ।
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गुरू महाराज के पास कोई विशेष धन संचय नहीं था, परन्तु वे बहुत अच्छे वैद्य थे । इसलिये रूपाहेली के ही नहीं परन्तु आस पास के गांवों के कुछ महाजन एवम् राजपूत सरदार आदि भी उनके पास अपनी चिकित्सा कराने के लिये आते रहते थे और रोग मुक्त हो जाने पर यद्यपि गुरूजी उन रोगियों से रुपया पैसा माँगते नहीं थे, तथापि वे लोग अपनी ओर से गुरू महाराज को कुछ न कुछ रुपयों पैसों की भेंट अवश्य कर जाया करते थे ।
जब छप्पन का वह भयंकर दुष्काल पड़ा तो अपने पास चिकित्सा कराने आने वाले उन रोगियों से रुपया पैसा भेंट स्वरूप न लेकर उसके बदले अनाज उनको यथाशक्ति भेज देने के लिये कह देते थे । इस तरह जो अनाज उनके पास आता रहता था, उसका उपयोग वे उक्त प्रकार से उन दुर्भिक्ष पीड़ितों को रोटियां खिलाने में करते थे। ऐसा क्रम कोई पाँच छह महिनों तक चलता रहा ।
संवत् १९५७ के प्राय: वैशाख मास में एक दिन प्रातःकाल गुरू महाराज जब अपने सोने के ऊँचे तख्त से नीचे उतरने लगे तो उनको कुछ चक्कर आ गये और वे नीचे गिर पड़े। उनके दाहिने पुट्ठे पर
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