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गुरु के सर्व प्रथम दर्शन
[६७ की हो चुकी थी, तो भी माता मुझे ७-८ वर्ष का ही समझती थी और उसी तरह मुझे छाती से लगाये रहती थी।
करीब शाम को ४ बजे रूपाहेली गांव से स्टेशन पर जाने का तय किया था और उसके लिये एक दो बैलगाड़ियों में सब सामान रख दिया था। गुरु महाराज बैठ नहीं सकते थे, इसलिये स्टेशन पर पहुंचाने के लिये ठाकुर सा० ने अपने गढ़ में जनानी सवारी के लिये जो एक प्रकार की खास गाड़ी होती थी, उसमें गुरु महाराज को सुलाकर स्टेशन पर ले जाने की व्यवस्था करदी थी।
रूपाहेली का रेलवे स्टेशन गांव से कोई दो ढाई मील के फासले पर है । शाम को चार पांच बजे जब ज्येष्ठ महिने की कड़ी धूप कम हई, तब गांव से स्टेशन की तरफ़ हम लोग चल पड़े। चलते समय गुरु महाराज ने कहा-"रिणमल, जा तू अपनी मां को पांवाघोक कर आ और कह आ कि हम लोग सब स्टेशन पर जा रहे हैं।"
मैं गुरु महाराज का यह आदेश पाकर दौड़ता हुआ अपनी मां के पास पहुंचा। मां गवाड़ी के दरवाजे पर खड़ी हुई बड़ी देर से प्रतीक्षा . कर रही थी। जैसे ही मैं उसके पास पहुंचा और उसके पांव छू कर मैंने कहा--"गुरु महाराज ने मुझे तेरे पास पांवाधोक करने के लिये भेजा है और अब हम स्टेशन पर जा रहे हैं।"
सुनकर मां की आंखों से फिर आंसू की धारा बहने लगी। मालूम देता था, उसका हृदय भर आया था और छाती धड़क रही थी। वह मुंह से कुछ ज्यादा बोल नहीं सकी । मेरा मुंह पकड़ कर बहुत जोर से कई दफ़ा चुम्बन किये । --उसकी आँखों से बहते हुए आँसुप्रों से उसके गाल अच्छी तरह भीग गये, जिनको अपने साड़ी के पल्ले से पोंछा और इतना ही बोली-बेटा, खुशी से जा और अच्छी तरह से गुरु महाराज की सेवा करना । जब वे तुझे यहाँ मेरे पास भेजने का प्रबन्ध करें तब तू जल्दी से यहां आ जाना।
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