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गुरू के सर्व प्रथम दर्शन
जैन यति अमरहँस जी से करवा रहे थे। यति अमरहँस जी अपने समय के अजमेर मेरवाड़ा में ही नहीं, बल्कि जोधपुर, बाडमेर, जालोर आदि इलाकों में भी एक प्रसिद्ध वैद्य माने जाते थे। उनको वैद्यक के कुछ विशिष्ट रहस्य प्रयोग सिखाने वाले उनके काका गुरू श्री देवी हँस जी यतिवर थे, जो स्वभाव से निस्पृही और निस्संग जैसे थे । कहीं एक स्थान बनाकर रहना उन्हें पसन्द नहीं था। वे सदा अनेक स्थानों में घूमा करते और अपने वैद्यकीय विशिष्ट ज्ञान द्वारा अनेक रोगियों को रोग मुक्त कर उनकी श्रद्धा के भाजन बने हुए थे । वे देवीहंस जी कुछ दिनों के लिये अपने गुरू भाई के शिष्य अमरहँसजी के आग्रह से अजमेर आये हुए थे। ठाकुर चतुरसिंह जी रूपाहेली वाले अपने उपचार के लिये अजमेर में यति अमरहंस जी के पास जब गये, तो उस समय देवीहँस जी महाराज वहां विराजमान थे। वैद्यवर अमरहँस जी ने ठाकुर चतुर सिंह जी से कहा कि-'ठाकुर यदि जीना चाहो तो मेरे परम गुरू देवी हँस जी के चरण पकड़ लो। यदि इनकी कृपा हो गई तो आप अवश्य रोग मुक्त हो जावेंगे और दीर्घ जीवी बन जावेंगे।"
यह सुनकर ठाकुर चतुरसिंह जी ने उनके चरण पकड़ लिये और चरणों में मस्तक रखकर आर्तस्वर में बोले:-"गुरू देव मुझे जीवन दान दें। मैं अपने रोग के सब उपाय करके थक गया हूँ और मुझे अपने जीवन की कोई आशा नहीं रही है । आप कृपा करके मेरे गांव चलें। वहाँ यतियों का पुराना उपाश्रय है । आप वहीं रहें और मुझे निरोग बनावें । मैं आजन्म आपका सेवक बना रहूँगा।"
यति देवीहँसजी जैसे एक सिद्धहस्त वैद्य थे वैसे ही वे बहुत बड़े एवम् मर्मज्ञ ज्योतिविद भी थे। उन्होंने ठाकुर साहब की जन्म कुंडली देखी । उनका निश्चय हुआ कि ठाकुर दीर्घायुषी हैं और रोग मुक्त हो सकेंगे। ऐसा ही कुछ सोच विचार कर वे रूपाहेली चले आये। ठाकुर साहब ने वहाँ पर यतिजी को बड़े सम्मान से रखा । यतिजी ने उनकी
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