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जिनविजय जीवन - कथा
ममताजी की हालत देखकर बहुत चिंतित हुई और उठकर घर में गई। चूल्हे पर दही की गाढ़ी छाछ में बाजरी के आटे की राब पकाई और उसे पिताजी के पीने को ले आई। पिताजी उसे पीकर बोले - "भगवान ने अमृत की छूट दे दी है । मुझे अब थोड़ा सोने दो और कुछ भी पूछना ताछना मत ! रात निकल जाने से मेरे जी को शांति मिलेगी ।"
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ऐसा कहते हुए चादर ओढ़कर वे निश्चेष्ट भाव से सो गये । माँ सारी रात उनके सिरहाने के पास भगवान के नाम की माला फेरती हुई बैठी रही और पिताजी सारी रात वैसे ही निश्चेष्ट भाव से पड़े रहे ।
गर्मी के दिन थे सवेरा जल्दी हुआ । पिताजी ने करवट बदली और मुंह से चादर हटाकर आँखें खोलीं तो माँ ने पूछा - "क्यों, तबियत कैसी है ? रात को नींद आई ?"
"हाँ, खूब अच्छी नींद आई। ऐसी नींद मुझे कई महिनों से नहीं श्राई" - पिताजी बोले, और फिर उठकर बिछौने में बैठ गये ।
दिन निकलने पर आस पास वाले परिचित जन मिलने आये, क्योंकि कई महिनों से पिताजी के आने जाने की खबर नहीं मिली थी और इस प्रकार वे अचानक घर आये, इसलिये पड़ोसी जनों को कुछ आश्चर्य हुआ । बाद में धीरे धीरे पिताजी ने अपने संग्रहिणी के उम्र रोग की बात की और बोले - "इसके इलाज के लिये मैं यहाँ कुछ दिनों की छुट्टी लेकर घर चला आया हूँ ।"
मेरे पिताजी का स्नेह संबन्ध रूपाहेली के स्व० वृद्ध ठाकुर चतुर सिंह जी से बहुत घनिष्ट था । वे ठाकुर स्वयं संग्रहिणी के बहुत पुराने भुक्त भोगी रोगी थे उन्होंने इस रोग निवारण हेतु कई बड़े २ डाक्टरों वैद्यों और हकीमों से इलाज कराये थे । और इसके लिये उन्होंने हजारों रुपये खर्च किये थे । वे अपना आखिरी इलाज अजमेर में रहने वाले
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