________________
मेरे दादा और पिताजी के जीवन की चटनायें [४३ लाये हो ? सुन कर वह आँसू भरी आँखों से बोला कि "महाराज कोई दो वर्ष पहले वि० सं० १९७६ के वैशाख वदि ७ को माँ साहब देवलोक पधार गये" सुनकर मेरे हृदय पर वज्राघात सा हुआ, उससे और कुछ भी पूछने की मेरी इच्छा नहीं हुई, मैंने उससे कहा, तुमने अभी रोटी नहीं खाई होगी सो जाओ रोटी खालो, बाद में मैं तुमको बुला लूंगा, वह रोता हुआ उठकर चला गया।
मैंने अपने मन को संभाला, सोचा, जो जानना था सो जान लिया, अब यहाँ इन लोगों के सामने अपना मानसिक परिताप व्यक्त करना उचित नहीं है । शान्ति पूर्वक अपने स्थान पर शीघ्र पहुँच जाना ठीक होगा, इत्यादि विचार कर मैं स्वस्थ हो गया।
दोपहर बाद ठाकुर साहब मेरे कमरे में आये उनका मन भी कुछ खिन्न सा था, पर मैं संभलकर उनसे अन्य बातें करने लगा, वे बोलेदो तीन वर्ष पहले पधारना हो जाता तो माताजी से मिलना हो जाता, मैंने कहा-किसी दुर्देव की कोई कुदृष्टि रही जिससे वैसा योग नहीं बना, यों माता का स्मरण अनेक बार मुझे होता रहा है, और जन्मभूमि इस रूपाहेली की याद भी बराबर आती रही है, पर अभी तक जिस प्रकार की जीवन चर्या में मैं बंधा हुआ था उसके कारण मुझे इन स्मरणों को मन से विस्मृत कर देने का ही प्रयास करते रहना पड़ा।
कोई १७-१८ वर्ष पूर्व मैंने जैन धर्म की साधु दीक्षा ग्रहण करली थी, उस साधुपने के अनेक कठोर नियमों का मैं पालन करता रहा, उस अवस्था में किसी प्रकार के वाहन द्वारा प्रवास करना मेरे लिये सर्वथा वर्ण्य था, मैं सदैव पाद भ्रमण करता रहा, और मेरा भ्रमण प्रदेश प्रायः मालवा महाराष्ट्र, गुजरात के देशों में होता रहा। राजस्थान में विचरण करने का प्रसंग नहीं पाया, साथ में उस चर्या में किसी गृहस्थ जन को पत्रादि लिखना अथवा उनसे व्यावहारिक मेल जोल रखना भी निषिद्ध था, और इतने दीर्घ काल में न मुझे कभी किसी कुटुम्बी जन का समागम ही कहीं हो सका, उस विरक्त चर्या में माता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org