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मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें
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जिनको मैंने रूपाहेली से विदा होने के पूर्व २२-२३ वर्षों पहले देखे थे । क्षण भर में मेरे मानस पटल पर गुजरात विद्यापीठ का वह सुरम्य नूतन स्थान और पूना में स्थापित किया हुआ मेरा “भारत जैन विद्यालय" का सुन्दर भवन आदि मेरे निवास स्थानों के चित्र आभासित हो उठे।
थोड़ी देर पश्चात् नौकर पाया और उसने मुझसे कहा, तुमको कुंवर साहब बुला रहे हैं, सो अन्दर चले जाओ।
मैं कमरे के अन्दर जाकर एक दरवाजे के पास खड़ा हो गया। मैंने धीमे स्वर से उनको हाथ जोड़कर नमस्कार किया। कुंवर साहब एक पुरानी-सी कुर्सी पर बैठे थे। सामने एक वैसी ही मेज पड़ी थी। कुछ एक दो आदमी और अन्दर खड़े थे। उनसे वे कुछ बातचीत कर रहे थे। मुझे दरवाजे में घुसते ही उन्होंने एक तीखी नजर से मुझे देख लिया, पर मेरे नमस्कार का उन्होंने कोई खयाल नहीं किया।
दो चार मिनट वे उन आदमियों से कुछ बात कर चुकने पर, मेरे सामने ताक कर पूछा "तुम कहाँ से आ रहे हो ? उत्तर में मैंने कहा "अहमदाबाद मे," प्र० "वहां क्या करते हो ?" उ० "कुछ लिखने पढ़ने का और कुछ विद्यार्थियों को पढ़ाने का," प्र० "क्या मास्टर हो ?" उत्तर-"मास्टर तो नहीं हूँ पर यूं ही एक विद्यालय में काम करता है।" प्र० उस विद्यालय का क्या नाम है-"कौन उसको चलाता है ?" मैंने कहा-"महात्मा गाँधी ने उसे स्थापित किया है और वह गुजरात की बड़ी नामी संस्था है।"
कुंवर साहब जिनका नाम लक्ष्मणसिंह था रूपाहेली ठाकुर साहब श्री चतुरसिंह जी के ज्येष्ठ पुत्र थे । और पढ़े-लिखे थे। बचपन में मैंने उनको अच्छी तरह देखा था, पर कोई विशेष परिचय का कारण नहीं था । महात्मा गाँधी जी का नाम सुनकर वे जरा चौंके, और मेरी ओर नीचे से ऊपर तक देखकर मेरे वेश आदि का निरीक्षण करते हुए बोले-"तुम्हारा नाम क्या है और कहाँ के रहने वाले हो ?"
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