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मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें
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माता के ही कोई समाचार मिले, न मैंने ही इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का कोई प्रयत्न ही किया । मैं जैसे एक मूछित मनुष्य की तरह इतने वर्ष अपने पूर्व जीवन विषयक विस्मरण का पूर्व भोग बना रहा । 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा', इस संस्कृत उक्ति के अनुसार मुझे अपने माता पिता आदि की स्मृति की चेतना पुनः जागृत हुई है और मैं आज इसी चेतना के वश होकर यहाँ चला आया हूँ। ____ मेरी बातें सुनकर ठाकुर साहब भी कुछ विस्मित हुए और बोले अब आज तो काफी रात हो गयी है, आप आराम करें, कल सुबह इस विषय की जो कुछ बातें मुझे ज्ञात है वह मैं आपको सुनाऊँगा।
आपकी माता के पास जो चाकर रहता था वह अभी मौजूद है, मैं सुबह उसको भी बुलाऊँगा और उससे जो भी जानकारी मिलेगी वह निवेदन करूँगा। यह कह कर ठाकुर साहब प्रणाम करते हुए चले गये मैं भी अपने बिस्तर पर लेट गया।
माघ का महीना था ठंडी काफी पड़ रही थी, सुबह होने पर मैं दातुन वगैरह कर निवृत्त हो गया, कोई दो घन्टे बाद एक आदमी दूध का एक बड़ा सा लोटा भरकर लाया, अपनी आवश्यकता अनुसार मैं पी गया और बाकी का वापस कर दिया ।
कोई दस बजे के लगभग ठाकुर साहब अपने नित्य नियमादि से निवृत्त होने पर मुझे अपने निज के उठने बैठने वाले खास कमरे में बुला भेजा, प्रणामादि के बाद अपने बैठने की खास गद्दी पर बड़े आग्रह पूर्वक मुझे बिठाया, और आप स्वयं सामने बैठ गये, रात्रि की विश्रान्ति आदि की कुछ बातें पूछकर, फिर मेरे पिता आदि के बारे में जितनी जानकारी उनको थी संक्षेप में कह सुनाई, उनमें कुछ बातें ऐसी भी थीं जिनको अपने ठिकाने को रक्षा की दृष्टि से प्रकट करना नहीं चाहते थे। ___मेरे पिता और दादा के जीवन का सम्बन्ध १८५७ वाले सैनिक विद्रोह की घटना के साथ जुड़ा हुआ था। उनकी कुछ रिश्तेदारी
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