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जिनविजय जीवन-कथा जिन प्रसंगों और परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है किस इच्छा से, कब, किस कार्य में प्रवृत्त होना पड़ा और किस मार्ग पर, कैसे चलना पड़ा इत्यादि विचार अपने ही मन को उद्वेलित करते रहते हैं। मन की इसी सन्तुष्टि के निमित्त आगे के इन पृष्ठों में कुछ संस्मरण लिपिबद्ध किये जा रहे हैं।
ऊपर मैंने जिन ११ श्लोकों का उल्लेख किया है। वे बाद में, सिंघी, जैन ग्रन्थमाला की प्रत्येक पुस्तक के आरम्भ में ग्रन्थमाला सम्पादक प्रशस्ति के शिरोलेख नीचे छपे हुए हैं। उस प्रशस्ति में साहित्यिक जीवन के सूचक और भी अनेक उल्लेख सूचित हुए हैं, परन्तु उन सबको यहां उल्लिखित करने का प्रसंग नहीं है किन्तु प्रारम्भ के वे ११ श्लोक जीवन के मूलभूत, आरम्भिक घटक का सूचन करते हैं, इसलिये उनको इस जीवन गाथा के आरम्भ में उधृत करना प्रसंग प्राप्त है ।
स्वस्ति श्री मेदपाटाख्यो देशो भारत विश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नाम्ना ग्रामस्तत्र सुविश्रुतः ॥१॥ सदाचार विचाराभ्यां प्राचीन नृपतेःसमः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोड़ान्वय - भूमिप: ।।२।। तत्र श्री वृद्धिसिहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्म - धनो यश्च परमार - कुलाग्रणी ॥३॥ मुज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्व तत्कुलजातजन्मनः ॥४।। पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य - सुवाक्सौजन्य - भूषिता ॥५॥ क्षत्रियाणी प्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्टव जनो मेने राजन्यकुलजाह्यसौ ॥६।। पुत्रः किशनसिंहाख्यो जातस्तयो रतिप्रियः । रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥७॥
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