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जिनविजय जीवन-कथा
संकट की समस्या उत्पन्न हो जाय, अतः रूपाहेली वाले पिताजी के साथ कोई खास लगाव दिखाने से दूर रहे । .. तब मेरे पिता गाँव काशोला (अजमेरा) में जहाँ मेरे पिता के काका नाहरसिंह की ससुराल थी, वहाँ जाकर कुछ दिन रहे । नाहर सिंह तो उस युद्ध में मारे गये थे, परन्तु उनकी पत्नी, बेटे व बेटी वहीं रहते थे। दादाजी तखतसिंह जी ने सूचित किया था कि नाहरसिंह के परिवार का ठीक पता लगावें । नाहरसिंह का एक छोटा पुत्र इन्द्रसिंह था। उसको साथ लेकर वे फिर रूपाहेली आये । बाद में रूपाहेली वालों ने मेरे पिताजी का भी वहीं रहने का कुछ प्रबन्ध कर दिया और जंगलात का काम सौंपा । उसी समय उनका विवाह बनेड़ा के राणावत हम्मीरसिंह जी की पुत्री बाई राजकुंवर के साथ हुआ, पर दो तीन वर्ष बाद ही उस स्त्री की मृत्यु हो गई। उसको एक पुत्र हुआ था जिसका नाम पन्नासिंह रखा गया, वह उक्त प्रकार से अठाणे में रूपाहेली वाली बाई आनन्द कुंवर की संरक्षता में पला ।
इधर पिताजी को समाचार मिले कि पुष्कर में उनके पिताजी की अवस्था बहुत क्षीण हो गई है, तब वे पिताजी की सेवा करने पुष्कर चले गए, कुछ दिन बाद मेरे दादाजी का स्वर्गवास हो गया।
पिताजी का सिरोही राज्य की सेवा में नियुक्त होना ।
पिताजी कुछ कार्यवश सिरोही गये । वहां पर सिरोही महाराव के साथ उनका परिचय हुआ। मेरे पिताजी बड़े चतुर और हिम्मतवान् शिकारी थे। महाराव जी उनकी कला से बहुत खुश हुए और उन्होंने अपने पिण्डवाड़ा जिले के पहाड़ी प्रदेश के जंगलों की देखभाल करने के काम पर एक अच्छे अधिकारी के रूप में नियुक्त किया। उन जंगलों की देखभाल के निमित्त मेरे पिताजी को अनेक गांवों और ठिकानों में जाना पड़ता था।
पिण्डवाड़ा और बसन्तगढ़ के बीच में एक छोटासा जागिरी का ठिकाना था । यहां के जागीरदार भावुक और अच्छे विचारवान् थे ।
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