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जिनविजय जीवन-कथा
का गेरुआ रंग का लम्बा सा झब्बा तथा खद्दर की मोटी धोती पहनना पसन्द किया था। सिर नंगा ही रखा था। प्रसंगवश झब्बे पर खद्दर की ही सफेद चद्दर ओढ़ लेता था । प्रवास में और चलते समय हाथ में बेंत की मोटी सी सोटी रखता । इसी भेष में मैं रूपाहेली जा रहा था। साथ में सिर्फ एक मोटा-सा जूट का थैला था जिसमें बिछाने के लिए पतली दरी, प्रोढ़ने का कम्बल तथा लोटा गिलास रख लिया था। ____ अजमेर से रूपाहेली तक रास्ते में मुझे अनेक विचार आते रहे। एक बार पिताजी के साथ पुष्कर के मेले में जाने का प्रस्पष्ट स्मरण बना हआ था, उस समय अजमेर के स्टेशन का जो चित्र मन पर अंकित था, उसका आभास हो आया । गाड़ी में बैठे २ टुकटुकी लगाकर नीचे सड़क की ओर देखते रहने पर सड़क की ओर देखते रहने पर सड़क पीछे की और कैसे भगी जा रही थी इसका भी एक धुधला-सा चित्र आँखों के सामने तैरने लगा।
ज्यों ज्यों रूपाहेली स्टेशन नजदीक आने लगा त्यों त्यों मैं मन में सोचने लगा, गाँव में जाकर मैं सबसे पहले किससे मिलू ? कहाँ पर जाकर बैठू ? मुझे पहिचान सके, वैसा मनुष्य कोई वहाँ होगा या नहीं? मेरी माता होगी या नहीं ? होगी तो कहाँ पर होगी ? किसके पास होगी उसका पता कैसे लगेगा, इत्यादि अनेक विचार मेरे मन में उठ रहे थे। ___ मुझे यह तो मालूम था कि रूपाहेली के वर्तमान ठाकुर श्री चतुरसिंह जी अच्छे विद्वान् और विद्यानुरागी पुरुष हैं । उनको मेरे नाम का और मेरी कुछ साहित्यिक कृतियों का भी इससे पहले ठीक परिचय हो गया था। स्वर्गीय म. म. गौरीशंकर ओझा जी ने मेरे विषय में इनको कुछ ज्ञातव्य बातें कह रखी थीं; परन्तु कभी सीधा परिचय इनसे पहले नहीं हुआ था। अतः मैं सोचता रहा था कि क्या सीधा जाकर इनसे मिलू ? या पहले और जगह जाकर किसी के द्वारा माता का पता लगाऊँ ? मैं अपनी माता को जिस घर में छोड़ आया था, वह घर भी अब विद्यमान होगा या नहीं ? यदि होगा तो उसमें
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