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मेरे दादा और पिताजी के जीवन की घटनायें
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बारे में कोई छानबीन नहीं कर रही है तब वे अपने विनष्ट हुए स्थान और परिवार के जनों की कुछ जानकारी करने की इच्छा से फिर उसी पुष्कर स्थान में आए। वहां रहकर कुटुम्बीजनों के कुछ हालात मालूम हुए जो उन्हें सब निराशाजनक और खेदकारक प्रतीत हुए । मेरे दादा जी की अवस्था काफी वृद्ध हो चुकी थी और कुटुम्ब - वालों पर बीते उस महान् संकट की स्मृति से उनका मन भी बहुत खिन्न हो गया था । पुष्कर में रहते हुए रूपाहेली के ठिकाने में से कोई सज्जन जब पुष्कर गए तो उनकी वहाँ पर मेरे दादाजी से भेंट हो गई और उनको उन्होंने अच्छी तरह पहचान लिया ।
उन्होंने उनको उसी अज्ञात रूप में रूपाहेली आने का भी कुछ आग्रह किया, परन्तु दादाजी की इच्छा पुष्कर में रह कर ही ईश्वर भजन करते हुए उसी रूप में अपना शेष जीवन व्यतीत करने की रही और अपने पुत्र वृद्धिसिंह को एक बार रूपाहेली भेजना पसंद किया । पिता की आज्ञानुसार वृद्धिसिंह ने अपना वह साधु भेष छोड़ दिया और गुपचुप रूपाहेली आये ।
ठिकानेवालों ने एक पुराना सा नोहरा, जिसमें दो एक कच्चे मकान बने हुए थे, उनको रहने के लिए दे दिये । यों रूपाहेली पिताजी की ननिहाल का ठिकाना था, परन्तु वे वहाँ शायद ही बचपन में आये और रहे हों । उनका जन्म एकलसिंगे वाली ढाणी में हुआ था और उनकी माता का स्वर्गवास संवत् १९१४ के पहले ही हो गया था । संवत् १९१४ से तो वे लापता हो गये थे और बीस वर्ष बाद फिर इस प्रकार प्रकट हुए ।
रूपाहेली के ठिकानेवालों का मेरे पिता की तरफ ममत्व भाव था । तथापि वे प्रकट रूप से उनकी सहायता करने में असमर्थ थे । क्योंकि यदि उदयपुर के दरबार में यह बात पहुँच जाय कि संवत् १९१४ के सैनिक बलवे में भाग लेने वाला कोई राजपूत व्यक्ति रूपाहेली में आकर रहा है, और उस बारे में ठिकाने से पूछताछ हो जाय, तो एक
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