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५.८
बनी ये हमने जो दी है वही है। लेखनं. ३८८ (४२) में इनसोने बलि के मलपारि देव के बाद एक दूसरी गुरुपरम्पस दी गई है जो उक लेख से जान लेना चाहिये।
इसके बाद लेख नं. ५६६ (१०५, १४वीं शताब्दी) और ६२५ (१०८, १५ वीं शताब्दी) में नन्दिगण को चन्दिसंघ कहा गया है और उसे मूलसंघ के अर्थ में प्रयुक्त किया है। इन दोनों लेखों में सेन, नन्दि, देव और सिंह संघों का एक काल्पनिक इतिहास दिया गया है। लेख नं० १०५ के ऐतिहासिक महत्त्व के लिए प्रथम भाग की भूमिका के पृष्ठ १२४-१२७ देखें । ये दोनों लेख एक सुन्दर काव्य कहे जा सकते हैं।
सूरस्थगण:-मूलसंघ का एक गण सूरस्थ गण नाम से प्रसिद्ध था यह लेख नं० १८५ २३४, २६६, ३१८,४६. और ५४१ से ज्ञात होता है । लेखों में इसका रस्त, सुराष्ट्र एवं सूरस्थ नाम से उल्लेख है। इन लेखों में इसके अन्वय गच्छ आदि का निर्देश नहीं है पर इस संग्रह के बाहर के कुछ लेखों से ज्ञात होता है कि इसमें चित्रकूट अन्वय या गच्छ था'। सूरस्थ एवं सूरस्त नाम कैसे पड़े यह कहना कठिन है । सुराष्ट्र नाम से प्रतीत होता है कि इस गण के साधु शुरू में सुराष्ट्र देश में रहते रहे होंगे, पर सुराष्ट्र का प्राकृत या अपभ्रंश रूप तो सुद्ध होता है सूरस्थ नहीं। संभव है उत्कीर्णक ने सुरटू का पुनः संस्कृत रूप देने के प्रयत्न में सूरस्थ कर दिया हो पर यह भी एक दो लेख में सम्भव था सब में नहीं । इस तरह सूरस्थ गण की व्युत्पत्ति अब भी भ्रान्त है । हो सकता है कि कोई सूरस्त नाम का दक्षिण भारत में क्षेत्र हो जहाँ से इस गण के मुनियों ने अपना नाम ग्रहण किया हो ।
पुरस्थ गण का सर्वप्रथम उल्लेख सन् १६४ के एक जैन लेख में मिलता है। कहा जाता है कि सूरस्थ गण प्रारम्भ में मूल संघ के सेनगण से सम्बन्धित था। १. जैन एन्थक्वेरी, भाग ११, अंक २, पृष्ठ ६३, ६५ २. जैनिज्म इन साउथ इण्डिया, लेख नं. ४६ पृष्ठ ३१७-३४ (जीवराव
प्रन्थमाला सोलापुर)