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देवेन्द्र सिद्धान्त श्रादिदेशियमण की परम्परा से सम्बन्धित है यह हम पहले देख चुके हैं पर उनके पहले के कोड कुन्दाचार्य, उमास्वाति, समन्तभद्र श्रादि श्राचार्यो के नाम द्रविड संघ से सम्बन्धित नन्दिगण के ११ वीं शताब्दी के लेखों ( २१३, २९४,२८७ आदि) में भी दिखाई देते हैं। इस तरह मूलसंघ और द्रविडसंघ के लेखों में नन्दिगरा के प्राचीन श्राचार्यों के प्रायः एक से नामों को देखकर ऐसा लगता है कि इन दोनों संघों में कोई प्राचीन नन्दिगण ( संघ ) बाहर से शामिल किया गया होगा, तथा ये सब श्राचार्य उसी गए के रहे होंगे और इस विषय में हम संकेत भी कर आये हैं कि यापनीय संघ के नन्दिसघ को ही द्रविड संघ और मूलसंघ ने अपनाया था । यापनीय संघ के साथ नन्दिसंघ के प्रगट या गट रूप से किये गये कतिपय उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि यापनीयों में नन्दिसंघ महत्त्वपूर्ण था ( १०६, १२१, १२४, १४३) । प्राकृत भाषा में नन्दिसंत्र की जो प्राचीन पट्टावली उपलब्ध है वह संभव है इसी संघ की थी । उसमें वीर निर्वाण सं० ६८३ तक की वंशपरम्परा दी गई है । संस्कृत में नन्दिसंत्र की एक और पट्टावली उपलब्ध है पर वह मूलसंघ के पश्चात्कालोन श्राचार्यों की है उसका प्राकृत पट्टावलि से कोई सम्बन्ध नहीं ।
इस सम्भावना के बाद उपर्युक्त मूलसंघ के लेखों में जो पट्टावलियाँ दी गई हैं। उन पर हम संक्षिप्त में कह देना चाहते हैं कि लेख नं० २५५ (४७) और ३२२ (५०) में प्राय: एकसी गुरुपरम्परा दी गई है पर वह कलधौतनन्दि के बाद देशिय गण के उपर्युक्त निर्दिष्ट अन्य लेखों से नहीं मिलती। लेख नं० ३६२ (४०) में देशिय गण को नन्दि गण का प्रभेद कहा गया है और उसमें जो पट्टावली दी गई है वह जैन शिलालेखसंग्रह के प्रथम भाग की भूमिका के पृष्ठ सं० १३२ में प्रति है । लेख नं० २८५ (४३) में कलधौतनन्दि एवं रविचन्द्र के बाद जो गुरुपरम्परा मिलती है वह देशिय गण इनसोगे बलि की पट्टा
१. षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृष्ठ २४-२७
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४ पृष्ठ ७१, ८१.