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ज़ंजीर में न बँधना पड़ता । हमने विधवा विवाह का विरोध करके स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकारों को हड़पा, इसलिये श्राज हमें दुनियाँ के साम्हने औरत वन के रहना पड़ता है । मनुष्यों को श्रद्धूत समझा इसलिये आज हम दुनियाँ के अछूत बन रहे हैं । हमारे राक्षसी पापों का प्रकृति ने गिन गिनकर दंड दिया है। फिर भी हम उन्हीं राक्षसी अत्याचारों को धर्म समझते हैं! कहते हैं-विधवा विवाह से शरीर की विशुद्धि नष्ट हो जायगी ! जिस देह के विषय में जैन समाज का बच्चा बच्चा जानता है
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि ते मैली । नव द्वार व घनकारी, अस देह करे किम यारी ॥
ऐसी देह में जो विशुद्धि देखते हैं उनकी आँखें और हृदय किन पाप परमाणुओं से बने हैं, यह जानना कठिन है । व्यभिचारजात शरीर से जब सुदृष्टि सरीखे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंचे हैं तब जो लोग ऐसे व्यक्तियों को जैन भी नहीं समझते उन्हें किन मूर्खों का शिरोमणि माना जाय ? जैन धर्म श्रात्मा का धर्म है न कि रक्त, मांस और हड्डियों का धर्म | चमार रक्त, मांस में धर्म नहीं देखते। फिर जो लोग इन चीज़ों में धर्म देखते हैं, उन्हें हम क्या कहें ?
प्रश्न ( २१ ) - व इसका उत्तर इस में से हटा दिया गया है क्योंकि इसका सम्बन्ध सम्प्रदाय विशेष के साधु से है ।
प्रश्न ( २२ ) - क्या रजस्वला के रक्त में इतनी ताकत है कि वह सम्यग्दर्शन का नाश कर सके ? यदि नहीं तो क्या सम्यग्दर्शन के रहते अविवाहित रजस्वला के माता