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बार होता है । अनि कारण हैं: परन्तु उसके होने पर भी अगर asia निकले तो अग्नि और धुआँ का कार्य कारणभाव व्यभि afत नहीं कहलाता । हमने इसी बातके समर्थन में कहा था कि "चिकित्सा करने पर भी लोग मरते हैं, शास्त्री होने पर भी लोग धर्म नहीं समझते" । इस पर श्राप कहते हैं कि "वह चिकित्सा नहीं, चिकित्साभास है; वह शास्त्री, शास्त्री नहीं है" । बहुत ठीक, हम भी कहते हैं कि जिस विवाह के बाद कामलालसा शान्त नहीं हुई, किन्तु बढ़ी है, वह विवाह नही, विवा हाभास हैं | वास्तविक विवाह तो कामलालसा को अवश्य शांत करेगा । इसलिये विधवाविवाह से भी कामलालसा की शांति होती है।
आक्षेप (ड) - यह कोई नियम नहीं कि विवाह के बिना प्रत्येक व्यक्ति को देखकर पापवासना जागृत हो जाय। वासु पूज्य अकलङ्क श्रादि के विवाह नहीं हुए । क्या सभी श्रसं यमी थे ?
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समाधान- - कामलालसा की प्रांशिक शांति के लिए विवाह एक औषधि है । वासुपूज्य श्रादि ब्रह्मचारी थे । उनमें कामलालसा थी ही नहीं, इसलिये उन्हें विवाह की भी ज़रू रत नहीं थी । 'श्रमक श्रादमी सख़्त बीमार है । अगर उसकी चिकित्सा न होगी तो मरजायगा " - इस के उत्तर में अगर यह कहा जाय कि वैद्य के पास तो सौ दोसौ श्रादमी जाते हैं, बाक़ी क्यों नहीं मर जाते ? तो क्या यह उत्तर ठीक होगा ? श्ररे भाई ! बीमार को श्रौषधि चाहिये, नीरोगको औषधि नहीं चाहिये। इसी तरह कामलानमा वाले मनुष्य को उस की आंशिक शांति के लिए विवाह की श्रावश्यकता है, न कि ब्रह्मचारी को । इससे एक बात यह भी सिद्ध होती हैं कि विवाह का मुख्य उद्देश्य लड़के बच्चे नहीं हैं । बालब्रह्मचारियों के