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सुख होता है: अगर भाज्य भोजक सम्बन्ध होता तो भोज्य (स्त्री) को सुख न होना चाहिये था: अगर स्त्री को भोज्य माना जाय तो स्त्री को कुशील के पाप का बन्ध न होना चाहिये: कयोंकि भोगने वाला ना पुरुष है स्त्री ने नो भोग किया ही नहीं हैं, फिर पाप कमा? तीसरी बात यह है कि वेश्या को भी हमें निदोष मानना पड़ेगा: क्योंकि वह तो भाज्य हैं । जैसे थाली का एक पुरुप झूठा कर या दम, वह अपवित्र होती है, किन्तु इसमें उनका दोष नहीं माना जाता । इसी प्रकार वेश्या का दोप या अपगध भी नहीं मानना चाहिये । रही अपवित्रता की बात, मो नो मधवा विधवा और वेश्या मसी अपवित्र है। क्योकि पापक मत सेव भी झूठी थाली के समान है । एमी हालतम हमें सपवा विधवा और वेश्या भवका समान मन्मान और धार्मिक व सामाजिक अधिकार देना पड़ेगा । बर !
भाक्ता किम कहते हैं ?
अब जग इस पर भी विचार कीजिय । गजवार्तिक में लिखा है “परद्रव्य वीर्यादान सामथ्र्य भोक्तृत्वलक्षणम'
सर द्रव्य की ताकत को ग्रहण करने की सामथ्य को संक्तृित्व कहते हैं । स्त्री पुरुष के भाग में हमें विचार करना चाहिये कि कौन किमकी ताकत को ग्रहण करता है । अथवा कौन अपनी शक्तियों को ज्यादह बर्बाद करता है । विचार करत ही हमें मालूम होगा कि मांकनृत्य स्त्री में है, पुरुष में नहीं । कयाकि इम कार्य में पुम्य की जितनी कि नट होती है इतनी म्बी की नहीं । दृमरी बात यह है कि म्बी की 'रज' को पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता बल्कि पुरुष के वीर्य को स्त्री ग्रहण कर लेती है। ग्रहण करना ही भोक्तृत्व है: यह बात गजवार्तिक