Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 348
________________ ( 2 ) गिनीयों की पूंछ उसी दिन तक रहती है जब तक कि कमाई करके खिलाने वाले उनके पति देव जीवित रहते हैं। उधर पीहर में भी उनकी इज्जत उसी अवस्था तक थी जब कि उनसे शादी करने के उम्मेदवार दूर २ के बूढ़े हज़ारों की थैलियां लेल कर आया करते थे । जहां तक ये निर्धन और बेबस बहिने, सदाचारिणीयां बन कर समाज में बैठी रहती है तब तक तो यह पापी पुरुष समाज उनकी रक्षा के लिये फूटी कौड़ी भी देने को तैयार नहीं होता लेकिन जब यी विधवा बहू बेटियां व्यभिचारिणीयां हो कर और अपने सतीत्व से गिर कर वेश्याएँ बन जाती है तो फौरन ही उनकी शादी के जमों में बुला कर उनके लिये थैलियों का मुंह खोल दिया जाता है। वूढ़े के साथ लग्न रचाकर धर्म के सेवक बनने वाले ब्राह्मण देवता भी प्राजके दिन न मालुम कहां मुंह छिपाये रहते हैं | कैसा घृणास्पद व्यवहार है ? समाज सुधार का प्रश्न उठते ही धर्म के ठेकेदार धर्म की दुहाइयां देने लग जाते हे । दिन रात हजारों हिन्दु विधवाद हिन्दु समाज में से निकल २ कर विघवन रही हूँ लेकिन स्वार्थ के सांचे में ढले हुए कीडों ने इस खुद गरजी को छोड़ कर तथा अपने हृदय की चीर कर नहीं देखा। धर्म की थोथी दुहाई देने वाले धर्मचार्यों और चिकने चुपड़े बने रहने वाले सफेद पोश युगले भक्त पापाचार्यो ! इस समाज की हालत पर अब तो कुछ तरस लाभो । धर्म शास्त्रों के सूतों को पहचानों । धर्म शास्त्र तो हमेशा द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार चलने की आज्ञा देते है 1 'समाज और जाति के मुखिया लोगों ! तुम किस घार निद्रा में सोये हा ? जरा आंखें तो खोल कर देखो तुमारी जाति किस दुरावस्था को प्राप्त हो रही है । साट २ साल के बुड्ढे बावाजी तो 16

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