Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 381
________________ * मेरे दो शब्द * प्रिय पाठकगण ! सब म प्रथम अपनी विधवा बहिनों की पकार मनिये और फिर हृदय पर हाथ रखकर बिवारिये कि क्या कभी आपने उनकी पाहाँका नोटिस लिया? नहीं, कदापि नहीं, हाय शोक ! महाशांक !! देखिये यह अपने भाइयों से क्या प्रार्थना करती है --- किस काम की जिन्दर्गा तुम्हारी। रक्षा न हुई अगर हमारी॥ तारवार का वक्त अब नही है। कांटा सा जिगर में जागजी है। में अपने को बड़ा ही भाग्यवान समझता हूं कि जैन धर्मभरण धर्मदिवाकर ब्रह्मचारी शानलप्रसादजी ने मेरे अन्धकार रूपी परदे को हटा कर ममार्ग पर लगाया। मैं इस विधवाविवाह के अति विपगत था घोर मैंने इसके वा · जैन ला' के खिलाफ हिन्दा जैन गजट में लेख भी दिये, परन्तु संयोगवश हमारं पारगेनाइजिंग इन्सपैक्टर श्रीमान् घाब बलवतगय जन का एक ब्राह्मणी विधवा से विवाह निश्चित हुश्रा, उसमें मुझे शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुश्रा उस समय पज्य ब्रह्मचारा जा से कुछ देशका समाधान हान पर मेरा भ्रम दूर होगया और मैंने ममय,काल पार व्यवस्था का देखकर यह प्रण किया कि जैन जाति का उद्धार तभी हो सकता है जबकि विधवा बहिनी की करुणा नाद के सामन मस्तक झकाया जाय और जंन शास्त्रोक्तानुसार उनका शमविवाह कराते हुये जन जाति का उत्थान कियाजाय और चौधरी चौकड़ायनी के फदे और भय से जैन जाति के सच सपतों को बचाया जाय। मैं अधिक न लिखते हुए १००८ श्री महावीर भगवान के दरबार में प्रार्थना करता हूं कि वह मेरे नवयुवक भाइयों को एसी सद्धि प्रदान करें जिससे कि वह छाती ठोक कर मैदान में भाए और इस शुभकार्य में हमारा हाथ बटाये कि जिस प्रकार हम जैनजाति की भंवर में पड़ी नय्या का पार लेजाएं। ज्योतिषमार्तण्ड(पं० शीतलप्रसाद जैन,F.A A. रिवाड़ी।

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