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कुमारी का सातावेदनीय व चारित्र के उदय से विवाह हो सकता है, उसी प्रकार विधवा का भी, जिसमें चारित्रमोहके उदय से काम की तीव्र इच्छा धधक रही है, विवाह हो सकता है।
इस प्रकार हमारे विरोधी मित्र यह पालाप अलापते हैं कि जब स्त्री ने एक पति बना लिया, तब वह फिर दूसरा पति केसे बना सकती है ?
इसके उत्तर में यह कहना ही काफी है कि जब पुरुष एक २ दो २ पत्नियां होने पर भी दूसरी पत्नि बना लेता है तो फिर स्त्री विधवा होने पर भी अर्थात कोई पति न रखते हुए भी दूसरा पति क्यों नहीं बना सकती ? यदि यह हट किया जाय कि विधवाओं को तो पूर्ण ब्रह्मचर्य पालना ही चाहिएचाहे वे गं २ कर पालें, चाहें खुशी में पाले-ता यह विशुद्ध अत्याचार है। यदि किसी मनुष्य में अनुपान त्याग करने की शक्ति नहीं है, फिर भी उसकी यह श्राशा करना कि तुम्हें तो उपवास करना पड़ेगा-चाहे ग २ कर करा, चाहे राजी से कगे, तो उसके लिये यह व्रत नहीं, दंड है । व्रत वही कहलाता है जो इच्छा या रुचि पूर्वक अपनी शक्तिअनुसार धारण किया जाए । अतः विधवाओं से, उनमें शक्ति न होते हुए भी जबरदस्ती वैधव्य पलवाना उनके लिये व्रत नहीं, बल्कि दंड है। मैं विगंधी मित्रों में पूछता हूँ कि यह दंड किस अपराध पर उन्हें दिया जाता है ? क्या 'विधवा हो जाना' ही उनका अपराध है । हमें ऐसा कोई कारण व अधिकार नहीं है कि हम उनमें जबरदस्ती वैधव्य पलवाएं।
हमा विरोधी मित्र यह भी आक्षेप करते हैं कि "सर्वार्थ सिद्धि" में "कन्यादानं विवाहः' एसा कथन आया है। इसके अनुसार विधवा का विवाह केस हो सकता है ? अतः विधवा विवाह व्यभिचार है ?