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विधवाएँ हैं जो स्वेच्छा से वैधव्य की वेदना को शान्तरूप से सहने को तैयार हो ? अगर ऐसी देवियां हैं तो बड़ी खुशी की बात है, अगर नहीं हैं तब तो उनसे निर्जरा की श्राशा नहीं की जा सकती। बल्कि दिन रात के आर्त ध्यान से वे नीच गति का ही बंध करती है। भ्रण हत्या और गुप्त व्यभिचार से यह बात स्पष्ट जाहिर होती है कि विधवा विवाह की ज़रूरत है। इस प्रकार के तर्क वितर्क से यह बात साफ़ जाहिर हो जाती है कि विधवा विवाह धर्म विरुद्ध नहीं हो सकता । अब जरा नजीरों पर विचार कीजिये
. देवगति में आम तौर पर विधवा विवाह चालू है । जिन देवियों का पति ( देव ) मर जाता है, वे अपने स्वामी के स्थान पर पैदा होने वाले देव की पत्नी हो जाती है । इतने पर भी उनके सम्यक्त्व और शुक्ल लेश्या में कोई अन्तर नहीं पाता। न उनके जिन दर्शनादि सम्बन्धी अधिकार कोई छीनता है । यदि कहो जाय कि उनका शरीर वैक्रयिक है जो कभी अपवित्र नहीं होता, तो यह भी कहा जा सकता है कि नारियो का शरीर रक्त मांसमय श्रीदारिक है जो कभी पवित्र नहीं रहता । चाहे वह अविवाहित रहे या एक बार विवाहित या बहु बार विवाहित । धर्म अधर्म चमड़े में रहने की वस्तु नहीं है। उसका सम्बन्ध प्रात्मा से है । अरे भाई : धर्म
अधर्म तो चर्मकार भी चमड़ में नही ढहता. फिर आप लोग क्या उससे भी गये बीते हो ? ग्वैर ! जो कुछ हो, परन्तु इतना तो सिद्ध हुवा कि विधवाविवाह का विरोध, सम्यक्त्व ( जैन धर्म ) और शुक्ल लेश्या से नहीं है । अगर तिर्यञ्चगति के ऊपर नजर डाली जाय तो हमें यह भी मानना पड़ता है कि देशविरति से भी इसका विरोध नहीं है। किन्तु