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नियोग कार्य पूरा हो जाने पर फिर भौजाई या बहू के
समान पवित्र सम्बन्ध रक्खे |
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नियतौ तौ विधि हित्वा वर्तेयातां तु कामतः । तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषागगुरुतल्पगौ ॥६- ६३॥ यदि नियोग के समय कामवासना से वह सम्भोग करे तो उसे भौजाई या भ्रातृबधू के साथ सम्भोग करने का पाप लगता है, वह पतित हो जाता है ।
पाठक देखें कि यह नियोग कितना कठिन है । साधारण मनुष्य इस विधिका पालन नहीं कर सकते । इसलिये श्रागे चलकर मनुस्मृति में इस नियोगका निषेध भी किया गया है। वेही निषेधपरक श्लोक पंडित लोग उधृत करते हैं और विधिपरक श्लोकों को साफ़ छोड़ जाते हैं ।
हिन्दू शास्त्र न तो नियोगके विरोधी हैं, न विधवाविवाह के । उनमें सिर्फ नियोग का निषेध, कलिकाल के लिये किया है क्योंकि कलियुग में नियोग के योग्य पुरुषों का मिलना दुर्लभ है । यही बात टीकाकारने कही है-" श्रयं न स्वोक्तनियांगनिषेधः कलिकालविषयः" । वृहस्पति ने तीन इलोकों में तो और भी अधिक खुलासा कर दिया है । इसलिये हिन्दुशास्त्रोंस विधवाविवाह का निषेध करना सर्वथा भूल है ।
आक्षेप (घ ) - वाणिक्यने पुनर्विवाह की आज्ञा नहीं दी परन्तु पति के पास जाने की आज्ञा दी है । बिल लाभ का अर्थ छोड़कर दूसरा पति करने का अर्थ तो इस अन्धेरी दरबार को हो सूझा ।
समाधान-श्रीलालजी जान बूझकर बात को छिपाते हैं अन्यथा "यथादस्तमादाय प्रमुञ्चेयुः” आदि वाक्यों से पूर्वविवाह सम्बन्ध के टूट जानेका साफ़ विधान है। ख़ैर, पहिली बात तो यह है कि उन वाक्योंका अनुवाद छुपी हुई पुस्तक में