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जल्दी से सीता और अञ्जना का नाम लेने लगते हैं,परन्तु सीता
और अञ्जना को वैधव्य कब भोगना पड़ा ? पुराणों में विध. वाओं का उल्लेख नहीं के बराबर है और जो मिलती हैं वे
आर्जिका के रूप में। हम मानते हैं कि उस समय भी अनेक विधवायें गृहवास करती थीं, परन्तु इससे भी उनके विवाह
का निषेध नहीं होता । भगवान ऋषभदेव की पुत्रियों (ब्राह्मी, सुन्दगी) ने अखगड ब्रह्मचर्य पाला था । क्या उनका उदाहरण देकर हम कुमारी विवाह का निषेध कर सकते हैं ? और क्या सीता अञ्जनाको भी पापिनी कह सकते हैं? यदि नहीं ना सीता अञ्जना का उदाहरण देकर हम वर्तमान में विधवा विवाह का भी निषेध नहीं कर सकते । जैसे ब्राह्मी और सुंदरी का उदाहरण देकर हम कुमारी विवाह और विधवा विवाह का निषेध नहीं कर सकते, उसी प्रकार पवनंजय का उदाहरण देकर पुरुषों के पुनर्विवाह का भी खगडन नहीं किया जामकता। पवनंजय अञ्जना को वाईस वर्ष छोड़ रहा । फिर भी उसने दूसग विवाह न कराया। आजकल कितने पुरुष भर जवानी में बाईस वर्ष तक संयन रख सकते हैं ? स्त्रियों के लिये तो ब्राह्मी, सुन्दरी, सीना आदि आदर्श है. परन्तु पुरुषों के लिय क्या वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ महावीर, पवनंजय श्रादि अादर्श नहीं है ? बात यह है कि आदर्श से हम रास्ते का पता लगा सकते हैं, उसकी तरफ मुंह करके चल सकते हैं लेकिन समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसके ऊपर प्रारूढ़ नहीं हा सकता।
जब हम देखते हैं कि अपने तीन तीन चार चार विवाह करने वाले पुरुष विधवा विवाह का निषेध करते हैं तब हमें