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हो जाने पर स्वम्त्री हो जावेगी: जो पुरुष, एक विधवा के लिये श्राज परपुरुष है वही विवाह हो जाने पर स्वपुरूष होजा. यगा । फिर अब व्यभिचार कहां रहा। क्या म्बम्त्री और स्वपुरुष के साथ सम्बन्ध करना भी व्यभिचार है ? यदि विवाह हो जाने पर भी हम व्यभिचार व्यभिचार चिल्लाते रहें तब नो पूर्ण ब्रह्मचारी के सिवाय मभी व्यभिचारी कहलायेंगे ।
कहा जाता है कि विधवा का तो विवाह ही नहीं हो सकता, फिर वह व्यभिचार का दोष कमे दुर होगा ? ठीक है: अगर विधवा का विवाह न हो सके तव ता व्यभिचार का दोष बना ही रहेगा। लेकिन हमें काशिग तो करनी चाहिये कि विधवा का विवाह हो सकता है या नहीं ? यदि कर मकंग तो ठीक है, न कर सको तो वश क्या है । अगर विधवा-विवाह करते ही वज्र पड जाय, स्त्री का जीवन समाप्त हो जाय या पुरुष का जीवन समाप्त हो जाय, मासिकधर्म बन्द हो जाय, स्त्रीत्व के चिन्ह नष्ट हा जाय तब समझना चाहिये कि विधवा-विवाह हो ही नही सकता । अगर ऐसी बात नहीं है तब ना पालसी बन कर पड़ रहन म क्या फायदा है ? यदि श्राप म्वयं नहीं कर सकते तो जो लोग कर सकते है उन्हें शाबाशी तो दीजिये । जो काम आपके लिये प्रसम्भव है वह उन्हाने सम्भव करके दिखा दिया: यह क्या कम बहादुरी है ? यदि आप कहें कि न करना चाहिये. इस लिये नहीं हो सकता ना हम पूछते हैं कि क्यों न करना चाहिये ? जब विवाह में यह ताकत है कि व्यभिचार का दोष दूर कर देता है तब, ज़रूरत पड़ने पर उसका उपयोग क्यों न किया जाय ?