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( १६८ ) पासकती क्योंकि ग्रन्थकार के मतानुमार शुद्रों को इन कार्यों का अधिकार नहीं है। इसलिये वास्तव में यहाँ राडा पुनविवाह' पाठ ही है जैसा कि प्राचीन प्रतियों से सिद्ध है।
अब ग्यारहवे अध्याय के पुनर्विवाह विधायक श्लोकों को भी देख लेना चाहिये । १७१वं श्लोक में साधारण विवाहविधि समाप्त हो गई है परन्तु गन्थकार को कुछ विशेष कहना था मां उनने १७२ वें श्लोक स लगाकर १७७ वे प्रतीक नक कहा है । परन्न दुमरी प्रावृत्ति में पण्डितों ने १७४ वे श्लोक में "अथ पग्मतम्मृतिवचनम्" पेमा वाच्य और जोर दिया जो कि प्रथमावृत्ति में नहीं था। बैरव कही के हो परन्तु सामसनी उन्हें जैनधर्म के अनुकूल समझते हैं इलिये उन को उधृत कर भी उनका बगडन नहीं करने । इमोलिय पना. लाल जी ने १७२ वे श्लोक की उत्थानिका में लिखा है कि"पग्मतके अनुसार उस विषयका विशेष कथन करते हैं जिम्म का जैनमत के साथ कोई विरोध नहीं है।" इमलिये यहाँ जा पाँच श्लोक उद्धृत किये जाते हैं उनके विषय में कार्ड यह नही कह सकता कि ये ना यहाँ वहाँ के है इनमें हमें क्या सम्बन्ध? दूसरी बात यह है कि मोममन जी ने यहाँ वहाँ के श्लोकों से या नो गन्धका प्राधा कलेवर भर रखा है, इमलिये यहाँ वहाँ के श्लोकों के विषय में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि गह रचना मगे की है परन्तु मन तो उन्हीं का कहलायगा । मौर, उन श्लाकों को देखिये
विवाहे दम्पती म्यातां त्रिग ब्रह्मचारिणौ । अलंकृता बधूचव सह शय्यामनाशनी ॥ ११-१७२ ॥
विवाह होजाने के बाद पति पत्नी तीन गत्रि तक ब्रह्मचर्य से रहे। इस के बाद बधू अलकृत की जाय और वे दोनों साथ सावे साथ बैठे और साथ भोजन करें।