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विधवाविवाह के विरोधी पण्डित इसको पूर्ण प्रमाण मानते हैं, यहाँ तक कि उस पक्ष के मुनिवेषो लोग भी उसे पूर्ण प्रमाण मानते हैं । जिस प्रकार कुरान पर अपनी श्रद्धा न होने पर भी किसी मुसलमान को समझाने के लिये कुरान के प्रमाण देना अनुचित नहीं है उसी प्रकार विचार को न मानते हुये भी स्थितिपालकों को समझाने के लिये उसके प्रमाण देना अनुचित नहीं है ।
त्रिवर्णाचार में दो जगह विधवाविवाह का विधान है और दोनों ही स्पष्ट हैं
गर्भाधानं पुंसवने सीमन्तोन्नयने तथा । प्रवेश पुनर्विवाह मंडने ॥ ८-११६ ॥ पूजने कुलदेव्याश्च कन्यादानं तथैव च । कर्मवेषु वै भार्या दक्षिणे तृपवेपयेत् ॥ ८-११७ ॥ गर्भाधान पुंसवन सीमन्तोन्नयन वधूप्रवेश, विधवाविवाह, कुलदेवीपूजा और कन्यादान के समय स्त्री को दाहिनी श्रार बैठाव ।
इस प्रकरण से यह बात बिलकुल सिद्ध हो जाती है कि सोमसेनजी की स्त्री पुनर्विवाह स्वीकृत था । पीछे के लिपिकारों या लिपिकारकों को यह बात पसन्द नहीं आई इसलिये उनने 'ड' की जगह 'शूद्रा' पाठ कर दिया है। पं० पनालालजी सोनी ने दोनों पाठों का उल्लेख अपने अनुवाद में किया था परन्तु पीछे से किसी के बहकाने में श्राकर छपा हुआ पत्र फड़वा डाला और उसके बदले दूसरा पत्र लगवा दिया। अब वह फटा हुआ पत्र मिल गया है जिससे वास्त विक बात प्रकट हो गई है। दूसरी बात यह है कि इन श्लोकों में मुनिदान, पूजन, श्रभिषेक, प्रतिष्ठा तथा गर्भाधानादि संस्कारों की बात आई है इसलिये यहाँ शूद्र की बात नहीं