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( २०२ ) माधक होता ना बात मरी थी, परन्तु उननं तो अनेक प्रकरणों में अनेक तरह से स्त्रीपनर्विवाह का समर्थन किया है। इस त्रिवर्णाचार में ऐसी बहुत कम बाते हैं जो जैनधर्म के अनुकूल हो। उन बहुन थोड़ो बालों में एक बात यह भी है । इसलिये त्रिवर्णाचार के भक्तों का कम से कम विधवाविवाह का ना पूर्ण समर्थक होना चाहिये।
इतना लिखने के बाद जो कुछ प्राक्षेपकों के प्राक्षेप रह गये हैं उनका समाधन किया जाना है।
आक्षेप (क)-गालव ऋषि नो पुनर्विवाह का नि. पंध कर रहे है। आप विधान क्यों समझ बैठे ? ( श्रीलाल, विद्यानन्द )
ममाधान-गालव ऋषि ने सिर्फ कलिकाल के लिये पुनर्विवाह का निषेध किया है। इसलिये उनके शब्दों से ही पहिले के युगों में पनर्विवाह का विधान सिद्ध हुआ। तथा इसी श्लोक के उत्तरार्ध से यह भी सिद्ध होता है कि कोई प्राचार्य किसी किसी देश के लिये कलिकाल में भी पुनर्विवाह चाहते हैं । इसलिये यह श्लोक विधवाविवाह का समर्थक है।
भोगपत्नी आदि की बातों का खराडन किया जा चुका है। श्रीलालजी ने जो १७२ वे प्रादि श्लोको का अर्थ किया है वह बिलकुल बेबुनियाद तथा उनकी ही पार्टी के पंडित पन्नालाल जी सोनी के भी विरुद्ध है। इन इलाकों में रजस्वला होने की बात तो एक बच्चा भी न कहेगा।
___ आक्षेप (ख )-मनुस्मृति में भी विधवाविवाह का निषेध है।
समाधान-आक्षेपक यह बात तो मानते ही हैं कि हिन्दु शास्त्रों में परस्पर विगंधी कथन बहुत है। इसलिये वहां विधवाविवाह और नियोग का एक जगह जोरदार समर्थन