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प्राक्षेप (ङ)-न दो प्रकार के हैं-निवृत्तिरूप, प्र. त्तिरूप । शुभकर्म में प्रवृत्ति करना भी चूत है । यद्यपि बच्चों की शुभकर्म की प्रवृत्ति में काई भाव नहीं रहता, फिर भी वे वनी कहे जा सकते हैं। (विद्यानन्द )
समाधान-~-जब कि वन भावपूर्णक होते हैं तब वूतों के भेद भावशून्य नहीं हो सकते । जीव का लक्षण चेतना. उसके मय भेद प्रभेदा में अवश्य जायगा । जीव के प्रभेद यदि जलचर, थलचर, नमबर हे ना इसस नाका, रेलगाड़ी या वायुयान, जीव नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें जीव का लक्षण नही जाता । इमलिये भावशून्य कोई कार्य वन का भेद नहीं कहला सकता । जा फल फूल या जल भगवान को चढ़ाया जाता है क्या वह वनी कहलाता है ? यदि नहीं, तो इसका कारण क्या भावशन्यता नहीं हैं ? क्या भावशन्य जिनदर्श नादि कार्यों को न कहने वाला एकाध प्रमाण भी श्राप दे सकते हैं?
आक्षेप (च)-संस्कागे को अनावश्यक कहना जैन सिद्धान्त के मर्म को नहीं समझना है । इधर आप संस्कारी स योग्यता पैदा करने की बात भी कहते हैं। ऐसा परम्पर. विरुद्ध क्यों कहते हैं ? (विद्यानन्द)
समाधान-वत और सस्कारों को एक समझ कर श्राक्षेपक के गुरु ने घार भूर्खता का परिचय दिया था । हमने दोनों का भेद समझाया था जो कि अब शिष्य ने स्वीकार कर लिया है। वन और संस्कार जुदे जुदे हैं इसलिये वे संस्कार अनावश्यक हैं' यह अर्थ कहाँ से निकल पाया, जिससे परम्परविरोध कहा जासकं ? प्राक्ष पक या उसके गुरु का कहना तो यह है कि "कि बाल्यावस्था में भी संस्कार होते हैं इस. लिये खत कहलाया" । इसी मूवता को हटाने के लिये हमने