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(१७७ ) ममाधान -इसीलिये तो शरीर के साथ जैनधर्म का कुछ सम्बन्ध नहीं है। शरीर के अच्छे होने से उसे छाती से चिपटाने की लालसा होती है परन्तु किसी को छाती से चिपटाने से मोक्ष नहीं मिलता, मान दूर भागता है। धर्म
और मोक्ष के लिये तो यह विचार करना पड़ता है कि "पल रुधिर गधमल थैली, कोकम बमादि ते मैली । नवद्वार बहे घिनकारी, प्रम दह करें किम यारी॥"
आक्षेप ( 2 )-जहाँ रक्त मांस की शुद्धि नहीं है, यहाँ धर्मसाधन भी नहीं है, यथा म्वर्ग प्रादि । (विद्यानन्द )
समाधान-देवों के शरीर में रक्तमांस की शुद्धि नहीं है परन्तु अशुद्धि भी तो नहीं है । यदि शरीर का धर्मस सम्बन्ध होना तो दवा को मोक्ष बहुत जल्दी मिलता। ममन्तभद्र स्वामी ने प्रातमीमांसा में तीर्थंकर भगवान को लक्ष्य करके कहा है कि "भगवन् ! शागरिक महत्व तो आपके समान देवों में भी है इसलिये श्राप महान नहीं है"। इमसे दो बाने सिद्ध होती हैं । पहिली तो यह है कि परमात्मा बनने के लिये या परमात्मा कहलाने के लिये शरीर शुद्धि की बात कहना मखेता है। दूसरी यह कि दवा का शरीर भी शुद्ध होता हे फिर भी वे धर्म नहीं कर पाते। अगर रक्त मांस की शुद्धि' शब्द को हो पकड़ा जाय तो भोगभूमिजों के यह शुद्धि होती है, फिर भी व धर्म नहीं कर पाते हैं। पशुभों के यह शुद्धि नहीं होती किन्तु फिर भी इन सबसे अधिक धर्म पंचमगुणस्थान और शुक्ल
श्या धारण कर लेते हैं। शीग्शुद्धिधारी भांगभूमिज तो सिर्फ चौथा गुणस्थान और पीन लेश्या तक ही धारण करपाते हैं।
* अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहादयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति गगादिमत्सु सः।