________________
( १५४ )
ज़रूरत नहीं है। इसके लिये कोई शास्त्रीय प्रमाण नही दिया । छः वर्ष का बचा अगर कोई अच्छी किया करता है तो क्या श्राक्षेपक के मतानुसार वह बनी है ? क्या प्राचार्यों का यह लिखना कि आठ वर्ष से कम उम्र में व्रत नहीं हो सकता भूठ हे ? या श्राक्षेपक ही जेनधर्म में अनभिज्ञ है? छोटे बच्चे में भी कुछ भाव ना होते ही है जिसमे वह पुरायबन्ध या पापबन्ध करता है। जब पकन्द्रिय द्वीन्द्रिय प्रादि जीव भावरहित नही हे नव यह तो मनुष्य है । परन्तु यहाँ प्रश्न तो यह है कि उसके भाव, व्रतग्रहण करने के लायक होते हैं या नहीं? अर्थात् उसके व कार्य वनरूप है या नही ? हो सकता है कि वह नीम वर्ष के श्रादमी से भी अच्छा हो, परन्तु इससे वह वनो नहीं कहला मकना । कल्याणमन्दिर का जो वाक्य ( यस्माक्रिया प्रनिफलन्नि न भावशन्याः ) हमने उद्धृत किया हे उसके पीछे समस्त जैनशास्त्रों का बल है। वह हर तरह की परीक्षा से मोटश्च का उतरता हे । प्राक्ष पक हमें मिद्धमन के सदभिप्राय से अनभिज्ञ बतलाते है परन्तु बाम्तव में आपक ने स्वय कल्यामन्दिर और विषापहार के श्लोका का भाव नहीं समझा हे । दोनो श्लोको के मार्मिक विवेचन म पक स्वतन्त्र लेख हो जायगा। वास्तव में सिद्ध. मन का श्लोक भक्तिमाग की तरफ प्रेग्णा नहीं करता किन्तु पण्डित धनजय का श्लोक भक्तिमार्ग की तरफ़ प्रेरणा करता है। उनका मतलब है कि बिना भाव के भी अगर लोग भगवान को नमस्कार करेंगे ना सुधर जायेंगे । मिद्धसेन का श्लोक पंसी भक्ति को निरर्थक बतलाना है। सिद्धसेन कहते हैं ऐसी मावशून्य भक्ति नो हज़ागे बार की है परन्तु उसका कुछ फल नहीं हुआ। सिद्धसेन के श्लोक में तथ्य है, वह समझदागे के लिये है और धनञ्जय के श्लोक में फुसलाना है । वह